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- २५८] सर्वसहा मुनयः शरीरापगमविधि ध्यायन्ति २३७
आकृष्योग्रतपोबलरुदयगोपुच्छं यदानीयते तत्कर्म स्वयमागतं यदि विदः को नाम खेदस्ततः । यातव्यो विजिगीषुणा यदि भवेदारम्भकोऽरिः स्वयं वृद्धिः प्रत्युत नेतुरप्रतिहता तद्विग्रहे कः क्षयः ॥२५७॥ एकाकित्वप्रतिज्ञाः सकलमपि समुत्सृज्य सर्वसहत्वाद्
भ्रान्त्याचिन्त्याः सहायं तनुमिव सहसालोच्य किंचित्सलज्जाः । त्पत्तिसंभवात् कथं सुखित्वमित्याह-- आकृष्येत्यादि । आकृष्य हठात । उदयगोपुच्छं उदयावलिम् । स्वयमागतं स्वयम् उदयप्राप्तम् । विद: विवेकिनः। ततः स्वयम् आगतात् कर्मणः । यातव्य: विग्रहितव्य: । विजिगीषुणा शत्रुणा । आरम्भकः विग्रहप्रारम्भकरः । नेतुः विजिगीषोः ।। २५७ ।। कर्मोदये खेदमकुर्वन्तो मुनयः इत्थंभूताः कर्मनिर्जरां कुर्वन्त: शरीरमपि त्यक्तुं यतन्ते इत्याह-एकाकित्वेत्यादि । भ्रान्त्या का। अचिन्त्याः अविषयीकृताः। सहायमिव । किंचित् मनाक् । सज्जीभूताः प्रगुणीभूता: । स्वकार्ये मोक्षे । तदपगमविधि उदयगोपुच्छको-गायकी पूंछके समान उत्तरोत्तर हीनताको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंको-तीव्र तपके प्रभावसे स्थितिका अपकर्षण करके वर्तमानमें उदयको प्राप्त कराता है वह कर्म यदि स्वयं ही उदयको प्राप्त हो जाता है तो इससे उस साधुको क्या खेद होनेवाला है ? कुछ भी नहीं । ठीक है -जो सुभट विजयकी अभिलाषासे शत्रुके ऊपर आक्रमण करनेके लिये उद्यत हो रहा है उसका वह शत्रु यदि स्वयं ही आकर युद्ध प्रारम्भ कर देता है तो इससे उस सुभटको विना किन्हीं विघ्न-बाधाओंके अपने आप विजय प्राप्त होती है । वैसी अवस्थामें उसके साथ युद्ध करनेमें भला उसकी क्या हानि होनेवाली है ? कुछ भी नहीं ॥२५७॥ जिन योगियोंने सब परिषहोंके सहने में समर्थ होते हुए सब ही बाह्याभ्यभर परिग्रहको छोडकर एकाकी (असहाय) रहनेकी प्रतिज्ञा कर ली है, जिनके विषयमें भ्रांति कुछ सोच ही नहीं सकती है अर्थात् जो सब प्रकारकी भ्रांतिसे रहित हैं, जो शरीर जैसे महायककी सहसा समीक्षा करके कुछ लज्जाको प्राप्त हुए हैं-अर्थात् जो वस्तुतः असहायक शरीरको अब तक सहायक समझनेके कारण कुछ लज्जाका अनुभव करते हैं,तथा जो अपने कार्यमें (मुक्तिप्राप्तिमें)तत्पर हो चुके हैं; वे मनुष्योंमें सिंहके