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आत्मानुशासनम् [श्लो० १८सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म एव तव कार्यः । सुखितस्य तदभिवृद्धय दुःखभुजस्तदुपघाताय ॥१८॥
भोगाभिलाषश्च । पेयाधुक्रम:-- यथा ज्वरक्षीणशक्ते: आतुरस्य प्रथमतः पेयारूक्षाहाराापक्रमः श्रेयान् तथा मोहज्वरक्षीणशक्तेः मुमुक्षो: अणुव्रतादे: पेयादिसदृशस्य प्रथमतः प्रायो बाहुल्येन उपक्रमः प्रारम्भाः श्रेयान् ।।१७।। करय सौ तत्प्रारम्भः कर्तुमुचितः इत्याह ~ सुखितस्येत्यादि । सुखितस्य सुखम् अनुभवतः । दुःखितस्य दुःखमनुभवतश्च । धर्मश्चारित्रम् उत्तमक्षमादिर्वा । स एव संसारे तव कार्यः । सुखितस्य तदभिवृद्धये सुखाभिवृद्धिनिमित्तम् । दु:खभुजः दु:खितस्य ।
उसकी शारीरिक शक्तिको क्षीण होती हुई देखकर समुचित औषधिके साथ उसके लिये पीनेके योग्य फलोंके रस या दूध आदिरूप सुपाच्य भोजनकी व्यवस्था करता है। कारण कि स्निग्ध व गरिष्ठ भोजनसे उसका उक्त रोग कम न होकर और भी अधिक बढ़ सकता है। इस विधिसे उसका रोग सरलतासे दूर हो जाता है । ठीक इसी प्रकारसे जो प्राणी इन्द्रियविषयोंमें मुग्ध होकर उस विषयतृष्णासे अतिशय व्याकुल हो रहा है तथा इसीलिये जिसकी स्वाभाविक आत्मशक्ति क्षीणताको प्राप्त हो रही है उसके लिये सद्गुरु प्रथमतः अणुव्रत आदिके परिपालनकाजिनका परिपालन वह सरलतासे कर सकता है- उपदेश करता है। कारण कि वैसी अवस्थामें यदि उसे महाव्रतोंके धारण करनेका उपदेश दिया गया और तदनुसार उसने उन्हें ग्रहण भी कर लिया, परन्तु आत्मशक्तिके न रहनेसे यदि वह उनका परिपालन न कर सका तो इससे उसका और भी अधिक अहित हो सकता है । अतएव उस समय उसके लिये अणुव्रतोंका उपदेश ही अधिक कल्याणकारी होता है ॥१७॥ हे जीव ! तू चाहे सुखका अनुभव कर रहा हो और चाहे दुखका, किन्तु संसारमें इन दोनों ही अवस्थाओंमें तेरा एक मात्र कार्य धर्म ही होना चाहिये । कारण यह है कि वह धर्म यदि तू सुखका अनुभव कर रहा है तो तेरे उस सुखकी वृद्धिका कारण होगा, और यदि तू दुखका अनुभव कर रहा है तो वह धर्म तेरे उस दुरूके विनाशका कारण हेगा ।