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-१९] विषयसुखस्य धर्मफलत्वम्
धर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थसौख्यानि । संरक्ष्य तांस्ततस्तान्युञ्चिनु यस्तैरुपायैस्त्वम् ॥ १९॥
तदुपघाताय दुःखविनाशनिमित्तम् ॥१८|| विषयसुखं हि धर्मफलम् । अतो धर्म रक्षता तद्भोक्तव्यमेतदेवाह-धर्मारामेत्यादि । तान् धर्मारामतरून् । ततस्तेभ्यः । सानि फलानि । उच्चिनु गृहाण । य: कैश्चित् तैः प्रसिद्धः स्रग्वनितादिभिः उपाय: इन्द्रियसुख हेतुभिः । तान् वा संरक्ष्य । तैः उपायैः उत्तमक्षमामार्दवादिभिः ॥१९॥
विशेषार्थ- जो प्राणियोंके दुखको दूर करके उन्हें उत्तम सुखमें धारण कराता है वही धर्म कहलाता है। इससे धर्मके दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं- दुखको दूर करना और सुखको प्राप्त कराना। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि प्राणियोंको चाहे तो वे सुखी हों और चाहे दुखी, दोनों ही अवस्थामें उन्हें धर्मका आचरण करना चाहिये। कारण कि यदि वे सुखी हैं तो इससे उनका वह सुख और भी वृद्धिंगत होगा, और यदि वे दुखी हैं तो इससे उनके उस दुखका विनाश होगा ॥१८॥ इन्द्रियविषयोंके सेवनसे उत्पन्न होनेवाले सब सुख इस धर्मरूप उद्यानमें स्थित वृक्षों (क्षमा-मार्दवादि) के ही फल हैं । इसलिये हे भव्य जीव ! तू जिन किन्हीं उपायोंसे उन धर्मरूप उद्यानके वृक्षोंकी भले प्रकार रक्षा करके उनसे उपर्युक्त इन्द्रियविषयजन्य सुखोंरूप फलोंका संचय कर ।। विशेषार्थ-- ऊपर श्लोक १८ में जो धर्मको सुखका कारण और दुखका विनाशक बतलाया गया है उसमें यह आशंका हो सकती थी कि जब धर्म प्रत्यक्षमें सुखका विघातक है, तब उसे यहाँ सुखका कारण किस प्रकार कहा? कारण कि धर्माचरणमें विषयभोगोंके अनुभवसे प्राप्त होनेवाले सुखको छोडकर अनशनादिजनित दुखको ही सहना पडता है । इस आशंकाके निराकरणार्थ यहां यह बतलाया है कि जिस प्रकार अंगूर, सेब एवं आम आदि उत्तम फलोंकी इच्छा करनेवाला मनुष्य प्रथमतः कुछ कष्ट सहकर भी उन फलोंको उत्पन्न करनेवाले वृक्षोंका जलसिंचना क