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आत्मानुशासनम् । [श्लो०२०धर्मः सुखस्य हेतुहेतुर्न विराधकः स्वकार्यस्य । तस्मात्सुखभङ्गभिया माभूधर्मस्या विमुखस्त्वम् ॥ २० ॥
विषयसुखप्राप्ती धर्ममनुतिष्ठतस्तदभाव: स्यात् इत्याशङ्कया धर्मात्पराङ्मुखो माभूस्त्वम् । यतः-- धर्म: सुखहेतुरित्यादि । न विराधक: न विनाशक: । कया । भङ्गभिया विनाशभयेन । विमुखः परान्मुखः (पराङ्मुखः) । २०॥ अमुमेवार्थ
द्वारा परिवर्धन एवं संरक्षण करता है, तत्पश्चात् वह समयानुसार उनसे अभीष्ट फलोंको प्राप्त करके अतिशय आनन्दका उपभोग करता है । यदि वह पहिले जलसिंचनादिके कष्टसे डरकर उन वृक्षोंका परिवर्धन और संरक्षण न करता तो उसे उन अभीष्ट फलोंका प्राप्त होना असंभव ही था। ठीक इसी प्रकारसे वर्तमानमें जो इन्द्रियविषयभोगजनित सुख प्राप्त हो रहा है वह पूर्वकृत धर्मका ही परिणाम है । अतएव आगे भी यदि उक्त सुखको स्थिर रखना है तो उसके कारणभूत धर्मका आचरण अवश्य ही करना चाहिये । इससे वह धर्म फलीभूत होकर भविष्यमें भी उक्त इन्द्रियविषयजनित सुग्वरूप फलोंको स्थिर रखेगा, अन्यथा भविष्यमें उससे रहित होकर दुखका अनुभव करना अनिवार्य होगा ॥१९॥ धर्म सुखका कारण है और कारण कुछ अपने कार्यका विरोधी होता नहीं है। इसलिये तू सुखनाशके भयसे धर्मसे विमुख न हो । विशेषार्थ- धर्मके आचरणमें विषयसुखका विनाश होता है, इसी आशंकाका निराकरण करते हुए और भी यहां यह बतलाया है कि जब धर्म सुखका कारण है तब वह उस सुखका विघातक नहीं हो सकता है। यदि कारण ही अपने कार्यका विरोधी बन जाय तो फिर कार्य-कारणभावको नियमव्यवस्था भी कैसे बन सकेगी? नहीं बन सकेगी । इस प्रकारसे तो समस्त लोकव्यवहारका ही विरोध हो जावेगा। इसलिये धर्मसे सुखका विनाश होता है, यह कल्पना भ्रमपूर्ण है ॥२०॥ जिस प्रकार किसान बीजसे उत्पन्न
1 स धर्म।