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-२२] धर्ममाहात्म्यम्
२३ . धर्मादवाप्तविभवो धर्म प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु। बीजादवाप्तधान्यः कृषीवलस्तस्य बीजमिव ॥ २१॥ संकल्प्यं! कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणेरपि ।
असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥ २२॥ . दृष्टान्तद्वारेण समर्थयमानः प्राह-- धर्मादवातविभव इत्यादि । विभवः इन्द्रियसौख्यसंपत्तिः। प्रतिपाल्य रक्षित्वा । कृषीवल: कुटुम्बिकः। तस्य धान्यस्य ।। २१ । कीदृशं फल धर्मात्प्राप्यत इत्याह-- संकल्प (ल्प) मित्यादि संकल्पं (ल्यं) बचनेन याचितम् । चिन्त्यं मनसा संप्रधारितम् ॥ २२ ॥ धान्य (गेहूं व चावल आदि) को प्राप्त करता हुआ उसमेंसे भविष्यके लिये कुछ बीजके निमित्त सुरक्षित रखकर ही उसका उपभोग करता है उसी प्रकार हे भव्य जीव ! तूने जो यह सुख-सम्पत्ति प्राप्त की है वह धर्मके ही निमित्तसे प्राप्त की है, इसलिये तू भी उक्त सुखसम्पत्तिके बीजभूत उस धर्मका रक्षण करके ही उसका उपभोग कर ॥२१॥ कल्पवृक्षका फल संकल्प (प्रार्थना) के अनुसार प्राप्त होता है तथा चिन्तामणिका भी फल चिन्ता (मनकृत विचार) के अनुसार प्राप्त हवा है, परन्तु धर्मसे जो फल प्राप्त होता है वह अप्रार्थित एवं अचिन्त्य ही प्राप्त होता है । विशेषार्थ-लोकमें कल्पवृक्ष और चिन्तामणि अभीष्ट फलके देनेवाले माने जाते हैं । परन्तु कलवृक्ष जहाँ वचन द्वारा की गई प्रार्थनाके अनुसार अभीष्ट फल देता है वहां चिन्तामणि मनकी कल्पनाके अनुसार वह फल देता है । किन्तु धर्म एक ऐसा अपूर्व पदार्थ है कि जिससे अभीष्ट फल प्राप्तिके लिये न किसी प्रकारको याचना करनी पड़ती है और न मनमें कल्पना भी। तात्पर्य यह कि धर्मका आचरण करनेसे प्राणीको स्वयमेव ही अभीष्ट सुख प्राप्त होता है । जैसेयदि मनुष्य सघन वृक्षके नीचे पहुंचता है तो उसे उसकी छाया स्वयमेव प्राप्त होती है,उसके लिये वृक्षसे कुछ याचना आदि नहीं करनी पडती॥२२॥ विद्वान् मनुष्य निश्चयसे आत्मपरिणामको ही पुण्य और पापका कारण बतलाते हैं । इसलिये अपने निर्मल परिणामके द्वारा पूर्वसंचित
1 मुद्रितप्रतिपाठोऽयम्, ज स संकल्पं ।