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आत्मानुशासनम्
श्लो० २३परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः । तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ।। २३ ।। कृत्वा धर्मविघातं विषयसुखान्यनुभवन्ति ये मोहात् ।
आच्छिद्य तरून् मूलात् फलानि गृहन्ति ते पापाः ॥ २४ ।। एवंविधो धर्मः कुतः उपार्जित इत्याह- परिणाममेवेत्यादि । खलु स्फुटम् । तस्मात् परिणामात्, अथवा यत: एवं तस्मात् । पापापचय: पापस्य अपचय: अनुपार्जनं निर्जरा च । पुण्योपचय: पुण्योपार्जनं पुण्याभिवृद्धिश्च । सुविधेयः सुखेन विधातुं शक्यः सुष्छु वा कर्तव्य: ॥२३॥ ये तु धर्मोपचयम् अकुर्वन्त: विषयसुखान्यनुभवन्ति तेषां निन्दां दर्शयन्नाह-- कृत्वा धर्मविघातमित्यादि ॥२४॥ पापकी निर्जरा, नवीन पापका निरोध और पुण्यका उपार्जन करना चाहिये ॥ विशेषार्थ- 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' (तत्त्वा. ६-३) इस सूत्रमें आचार्यप्रवर श्री उमास्वामीने यह बतलाया है कि शुभ योग पुण्य तथा अशुभ योग पापके आस्रवका कारण है। यहां शुभ परिणामसे उत्पन्न मन, वचन एवं कायकी प्रवृत्तिको शुभ योग तथा अशुभ परिणामसे उत्पन्न मन, वचन एवं कायकी प्रवृत्तिको अशुभ योग समझना चाहिये। इस प्रकार जब पुण्यका कारण अपना ही शुभ परिणाम तथा पापका कारण भी अपना ही अशुभ परिणाम ठहरता है तब आत्महितको अभिलाषा करनेवाले भव्य जीवोंको अपने परिणाम सदा निर्मल रखने चाहिये, जिससे कि उनके पुण्यका संचय और पूर्वसंचित पापका विनाश होता रहे ॥२३॥ जो प्राणी अज्ञानतासे धर्मको नष्ट करके विषयसुखोंका अनुभव करते हैं वे पापी वृक्षोंको जडसे उखाडकर फलोंको ग्रहण करना चाहते हैं । विशेषार्थ-- जिस प्रकार उत्तम फलोंको चाहनेवाला मनुष्य उन फलोंको उत्पन्न करनेवाले वृक्षोंको जड-मूलसे उखाडकर कभी उन अभीष्ट फलोंको नहीं प्राप्त कर सकता है उसी प्रकार विषयसुखकी अभिलाषा करनेवाले प्राणी भी उस सुखके कारणभूत धर्मको नष्ट करके कभी उक्त विषयसुखको नहीं प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये यदि विषयसुखकी अभिलाषा है तो उसके कारगभूत धर्मका रक्षण अवश्य करना चाहिये । २४॥ जो धर्म