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-२६] धर्मस्य भावाभावयोर्गुण-दोषदर्शनम् २५
कर्तृत्वहेतुकर्तृत्वानुमतेः स्मरणचरणवचनेषु । यः सर्वथाभिगम्यः स कथं धर्मो न संग्राह्यः ॥२५॥ धर्मो वसेन्मनसि यावदलं स तावद्धन्ता न हन्तुरपि पश्य गतेऽय तस्मिन् । दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्मजानां
रक्षा ततोऽस्य जगतः खलु धर्म एव ॥ २६ ॥ ननु तिरस्कारमात्रमेवेदं तत्सुखानुभवने धर्मोपार्जनस्य कर्तु सर्वथाप्यशक्यत्वादित्या. शङ्क्याह-- कर्तृत्वेत्यादि । धर्मविषये हि यत्स्मरणं तथा चरणम् अनुष्ठानं प्रतिपादनं तद्विषयाणि यस्य यानि (?) प्रत्येक कर्तृत्वहेतुकर्तृत्वानुमतानि तैः । सर्वथा योऽभिगम्यः प्राप्यः मनाक् अगम्यो न भवति ॥ २५॥ एवंविधे धर्म प्राणिनां चित्ते वर्तमानेऽवर्तमाने च फलमुपदर्शयन्नाह-धर्मों वसेदित्यादि । जनकात्मजानां पितृपुत्राणाम् ॥२६ ॥ ननु विषयसुखमनुभवतां प्राणिनां मनसे स्मरण, शरीरके द्वारा आचरण तथा वचनकृत उपदेशको विषय करनेवाले कर्तृत्व (कृत), हेतुकर्तृत्व (प्रेरणा-कारित) और अनुमोदनके द्वारा सब प्रकारसे प्राप्त किया जा सकता है उस धर्मका संग्रह कैसे नहीं करना चाहिये ? अर्थात् सब प्रकारसे उसका संग्रह अवश्य करना चाहिये ॥ विशेषार्थ- जो भी शुभ अथवा अशुभ कार्य स्वयं किया जाता है वह कृत, जो दूसरोंके द्वारा प्रेरणापूर्वक कराया जाता है वह कारित, तथा दूसरोंके द्वारा किये जानेपर जिसकी स्वयं प्रशंसा की जाती है वह अनुमत कहा जाता है। ये तीनों ही मन, वचन और कायसे सम्बन्ध रखते हैं। यथा- मनकृत, मनकारित, मनानुमत, वचनकृत वचनकारित, वचनानुमत, कायकृत, कायकारित और कायानुमत । इस तरह चूंकि इन नौ प्रकारोंसे सुखप्रद धर्मका संग्रह भले प्रकार किया जा सकता है अतएव सुखाभिलाषी प्राणियोंको उक्त प्रकारसे उस धर्मका संग्रह करना चाहिये, यही उपदेश यहां दिया गया है ॥ २५ ॥ देखो, जब तक वह धर्म मनमें अतिशय निवास करता है तब तक प्राणी अपने मारनेवालेका भी घात नहीं करता है । और जब वह धर्म मनमेंसे निकल जाता है तब पिता और पुत्रका भी परस्परमें घात देखा जाता