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शरीरं कलत्रं वा त्वां नान्वेति
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स्वार्थभ्रंशं त्वमविगणयंस्त्यक्तलज्जाभिमानः संप्राप्तोऽमिन् परिभवशतैर्दुःखमेतत्कलत्रम् । नान्वेति त्वां पदमपि पदाद्विप्रलब्धोऽसि भयः
सख्यं साधो यदि हि मतिमान् मा ग्रहीविग्रहेण ॥१९९॥ मिति ॥१९८।। अस्तु तर्हि इदं चेत्याह-- स्वार्थेत्यादि । स्वस्यार्थ: प्रयोजनं तप: तस्य भ्रंशं विनाशम् । अविगणयन् अमन्यमानः। अस्मिन् शरीरेसति परिभवः मानखण्डनम् । दुःखं! सकलदुःखहेतुत्वात् । कलत्रं भार्या । नान्वेति त्वां नानुगच्छति त्वया सह । विप्रलब्ध: वञ्चितः । सख्यं मैत्रीम् अभेदरूपताम् ॥ १९९ ॥ मूर्तानामपि हि पदार्थानामन्योन्यस्वरूपस्वीकारेणा--
स्त्रियोंके कटाक्षपात एवं हाव-भावादिसे पीडित होकर उस वैराग्यरूप सम्पत्तिको नष्ट करता है और अनुरागको प्राप्त होता है तो वह अतिशय निन्दाका पात्र बनता है । इससे तो कहीं वह गृहस्थ ही बना रहता तो अच्छा था । कारण कि इससे उसकी संसारपरम्परा तो न बढती जो कि गृहीत तपको छोड देनेसे. अवश्य ही बढनेवाली है ॥१९८॥ हे भव्य ! इस शरीरके होनेपर ही तूने इस दुखदायक स्त्रीको स्वीकार किया है
और ऐसा करते हुए तूने लज्जा और स्वाभिमानको छोडकर-निर्लज्ज एवं दीन बनकर-उसके निमितसे होनेवाले न तो सैकडों तिरस्कारों को गिना
और न अपने आत्मप्रयोजनसे-तप-संयमादिको धारण करके उसके द्वारा प्राप्त होनेवाले मोक्षसुखसे-भ्रष्ट होनेको भी गिना। वह शरीर और स्त्री तेरे साथ निश्चयसे एक पद (कदम) भी जानेवाले नहीं हैं इनसे अनुराग करके तू फिरसे भी धोका खावेगा। इसलिये हे साधो! यदि तू बुद्धिमान् है तो उस शरीरसे मित्रताको न प्राप्त हो-उसके विषय ममत्मबुद्धिको छोड दे ।।१९९।। कोई भी अन्य गुणवान् किसी अन्य गुगवान् के साथ अभेदस्वरूपताको नहीं प्राप्त होता है । परन्तु तू (अरूपी) किसो कर्म के वश उन रूपी शरीरादिके साथ अभेदको प्राप्त हो रहा है । जिन शरीरादिको तू अभिन्न मानता है वे वास्तवमें तुझ स्वरूप नहीं हैं । इसीलिये 1ज परिभवमानपंडनां दुःखं ।