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आत्मानुशासनम्
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[श्लो० २००
न कोऽप्यन्योऽन्येन व्रजति समवायं गुणवता गुणी केनापि त्वं समुपगतवान् रूपिभिरमा । न ते रूपं ते यानुफ्त्रजसि तेषां गतमतिः ततश्च्छेद्यो भेद्यो भवसि बहुदुःखो भववने ॥२०॥
भेदरूपता न प्रतीता, किं पुनर्मतामूर्नयोः सा भविष्यतीत्याह--नेत्यादि । न कोऽपि घटादिर्गुणी । अन्यो भिन्न: अन्येन भिन्नेन पटादिना गुणवता । समवायम एकत्वं व्रजति । केनापि कर्मणा । रूपिभिः शरीरादिपुद्गलैः । अमा सह । समवायत्वं समुपगतवान् समाश्रितवान् । न ते रूपं ते तव न ते पुद्गला: रूपं स्वरूपम् । यान् शरीरादिपुदगलान् । उपव्रजसि अभेदबुद्धया प्रतिपद्यसे । कथंभूतः । तेषां गतमतिः तेषु आसक्तमतिः । तत: तदभेदप्रतिपत्तेः तदासक्तमतेश्च ॥ २० ॥ तथा यदीदृग्भूतं शरीरं तस्या बुद्धिरपि
तू उनमें ममत्वबुद्धिको प्राप्त होकर आसक्त रहनेसे इस संसाररूप वनमें छेदा भेदा जाकर बहुत दुखी होता है । विशेषार्थ-लोकमें जो भी घटपटादि भिन्न भिन्न वस्तुएं देखनेमें आती हैं वे मूर्तिकरूपसे समान होकर भी एक दूसरेके साथ अभेदरूपताको प्राप्त नहीं होती हैं। परन्तु यह अज्ञानी प्राणी स्वयं अमूर्तिक होकर भी अपनेसे भिन्न स्त्री-पुत्र एवं धन सम्पत्ति आदि मूर्तिक पदार्थों के अभेदको प्राप्त होता है- उन्हें अपना मानता है । यह उसके कर्मोदयका प्रभाव समझना चाहिये । जब जीव स्वयं रूप-रसादिसे रहित (अमूर्तिक) एवं चैतन्यरूप है तब उसकी एकता रूपादिसहित (मतिक) एवं जडस्वरूप उन स्त्री-पुत्रादिके साथ भला कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है। फिर जो यह अपनी अज्ञानतासे उक्त भिन्न पदार्थोको अपना समझकर उनके साथ अनुरागको प्राप्त होता है उसका फल यह होगा कि उसे नरक और तिर्यंच गतियोंमें जाकर छेदने भेदने आदिके दुस्सह दुःखोंको सहना पडेगा ॥२००। इस शरीरकी उत्पत्ति तो माता है, मरण पिता है, आधि (मानसिक दुख) एवं व्याधि (शारीरिक दुख) सहोदर (भाई) हैं, तथा अन्तमें प्राप्त होनेवाला बुढापा पासमें रहनेवाला मित्र है; फिर भी उस निन्द्य शरीरके