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शरीरेणात्माऽशुचीक्रियते
माता जातिः पिता मृत्युराधिव्याधी सहोद्गतौ । प्रान्ते जन्तोर्जरा मित्रं तथाप्याशा शरीरके ॥ २०१ ॥ शुद्धोऽप्यशेषविषयावगमोऽप्यमूर्तोsप्यात्मन् त्वमप्यतितराम शुचीकृतोऽसि ।
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कथमित्याह -- मातेत्यादि । जाति: उत्पत्तिः । मृत्यु: पूर्वानन्तरभवे प्राणत्यागः । आधि: मन:पीडा । सहोद्गतौ भ्रातरौ । प्रान्ते अवसाने तथापि एवंविधदुःखहेतु सामग्री समन्वितोऽपि ॥ २०१ ।। तथा शुद्धादिस्वरूपोऽपि त्वं शरीरेण अशुद्धादिरूपतां नीतोऽसीत्याह -- शुद्धोऽपीत्यादि । शुद्धोऽपि अमलिनोsपि I अशेष विषयावगमोऽपि हेयोपादेयत स्वपरिज्ञानबानपि अमूर्तोऽपि निरुपलेपोऽपि । हे आत्मन् । इत्थंभूतस्त्वमपि येन शरीरेण अतितरां
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विषय में प्राणी आशा करता है ॥ विशेषार्थ - यदि किसी कुटुम्बमें स्थित व्यक्ति के माता-पिता, भाई-बन्धु एवं मित्र आदि सब ही प्रतिकूल स्वभाववाले हों तो ऐसे कुटुम्ब से सम्बन्ध रखनेवाले उस व्यक्ति से किसीको भी अनुराग नहीं रहता है । परन्तु आश्चर्य की बात है कि यह अज्ञानी प्राणी ऐसे प्रतिकूल कुटुम्बके बीच में रहनेवाले शरीरसे भी कुछ आशा रखता हुआ उससे अनुराग करता है । उस शरीर के कुटुम्ब में उत्पत्ति ( जन्म ) माता और मरण पिता है जो परस्पर खूब अनुराग रखते हैंएकके विना दूसरा नहीं रहना चाहता है । जीवको जो शारीरिक एवं मानसिक कष्ट होते हैं वे उस शरीर के सहोदर हैं- उसके साथ में ही उत्पन्न होनेवाले हैं । बुढापा उसका प्यारा मित्र है । अभिप्राय यह है कि जिस शरीरके साथ जीवको निरन्तर जन्म-मरण, रोग, चिंता एवं बुढापा आदिके दुःसह दुख सहने पडते हैं उससे अनुराम न रखकर उसे सदाके लिये ही छोड देने ( मुक्त होने) का प्रयत्न करना चाहिये || २०१ ॥ हे आत्मन् ! . तू स्वभावसे शुद्ध, समस्त विषयोंका ज्ञाता और रूप-रसादिसे रहित ( अमूर्तिक) हो करके भी उस शरीरके द्वारा अतिशय अपवित्र किया गया है । ठीक है -- बह मूर्तिक, सदा अपवित्र और जड शरीर