________________
१८८
आत्मानुशासनम् [श्लो० १९६शरीरमपि पुष्णन्ति सेवन्ते विषयानपि । नास्त्यहो दुष्करं नृणां विषाद्वाञ्छन्ति जीवितुम् ॥ १९६ ॥ इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावयाँ यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ॥ १९७ ॥ वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः । श्वः स्त्रीकटाक्षलुण्टाकलोप्यवैराग्यसंपदः ॥ १९८॥
कुर्वन्तीत्याह-- शरीरमित्यादि । पुष्णन्ति पोषयन्ति ॥ १९६।। शरीरं च कदर्थयन्तो गिरिगव्हरादीनि कायक्लेशस्थानानि परित्यज्य कालवशेन ग्रामसमीपे मुनयो वसन्ति इति दर्शयन्नाह-- इत इत्यादि । विभावर्या रात्रौ । उपग्राम ग्रामसमीपे । कलो पञ्चमकाले ।। १९७ ॥ तथा कलो तपो गृहीत्वा स्त्रीवशवर्तिनां गृहस्थावस्थैव श्रेष्ठेत्याह-- वरमित्यादि । वरं श्रेष्ठम् । किं तत् । गार्हस्थ्यमेव गृहस्थरूपतव । कस्मात् । तपसः पञ्चममहाव्रतादिरूपात् । किविशिष्टात् । भाविजन्मनः प्रवर्धमानसंसारात्। 'भाविजन्म यत्' इति पाठः, तत्र गार्हस्थ्य विशेषणमिदम्। पुनः कथंभूतादित्याह--श्व इत्यादि । अयमर्थ:- अद्य गृहीतात्तपसः श्वः प्रातः स्त्रीकटाक्षा एव लुण्टाकाश्चौराः तैर्लोप्यवैराग्यसंपदः तपसः । ततो गार्हस्थ्यमेव वर
करते हैं और विषयोंका भी सेवन करते हैं । ठीक है-- ऐसे मनुष्योंको कोई भी कार्य दुष्कर नहीं है-- वे सब ही अकार्य कर सकते हैं। वे वैसा करते हुए मानो विषसे जीवित रहनेकी इच्छा करते हैं ॥ १९६ ॥ जिस प्रकार हिरण वनमें इधर उधर दुखी होकर-- सिंहादिकोंसे भयभीत होकर- रात्रिमें उस वनसे गांवके निकट आ जाते हैं उसी प्रकार इस पंचम कालमें मुनिजन भी वनमें इधर उधर दुखी होकर-- हिंसक एवं अन्य दुष्ट जनोंसे भयभीत होकर-- रात्रिमें वनको छोडकर गांवके समीप रहने लगे हैं, यह खेदकी बात है ॥ १९७ ॥ आज जो तप ग्रहण किया गया है वह यदि कल स्त्रियोंके कटाक्षोंरूप लुटेरोंके द्वारा वैराग्यरूप सम्पत्तिसे रहित किया जाता है तो जन्मपरम्परा (संसार) को नहानेवाले उस तपकी अपेक्षा तो कहीं गृहस्थ जीवन ही श्रेष्ठ था। मशेषार्थ--- अभिप्राय यह है कि जिसने पूर्व में विषयोंसे विरक्त होकर समस्त परिग्रहके परित्यागपूर्वक तपको स्वीकार किया है वह यदि पीछे