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शरीरमनर्थपरंपरायाः मूलम् १८७ क्रमेण विलयावधि स्थिरतपोविशेषैरिदं कदर्थय शरीरकं रिपुभिवाद्य हस्तागतम् ॥ १९४॥ आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काङ्क्षन्ति तानि विषयान् विषयाश्च मान! हानिप्रयासभयपापकुयोनिदाः स्यु
मूलं ततस्तनुरनर्थपरंपरागाम् ॥ १९५॥ अवमोदर्यम् । विलयावधि मरणपर्यन्तम् । शरीरकं2 कुत्सितं शरीरम् । अद्य सांप्रतम ।।१९४।। अत्र संसारे या काचित् अनर्थपरंपरा तस्याः साक्षात् परंपरया वा शरीरमेव
कारणमतस्तदुक्तप्रकारेण कदर्थनीयमेवेत्याह-- आदावित्यादि । आदौ प्रथमम् । तत्र तनौ । हतेन्द्रियाणि निकृष्टेन्द्रियाणि ॥१९५।। एवंविधं शरीरं पोषयित्वा कि हुआ कष्ट देता रहा है । अतएव जिस प्रकार वह लोकप्रसिद्ध शत्रु जब मनुष्यके हाथमें आ जाता है तब वह उसे पूर्ण भोजन आदि न दे करके अथवा अनिष्ट भोजन आदिके द्वारा संतप्त करके नष्ट करनेका प्रयत्न करता है, उसी प्रकार तू भी इस शरीरको उस शत्रुसे भी भयानक समझकर उसे अनशनादि तपोंके द्वारा क्षीण करनेका प्रयत्न कर। इस प्रकारसे तू उसके नष्ट होनेके पूर्वमें अपने प्रयोजन (मोक्षप्राप्ति) को सिद्ध कर सकेगा। और यदि तूने ऐसा न किया तथा वह बीच में ही नष्ट हो गया तो वह तुझे फिर भी अनेक योनियोंमें परिभ्रमण कराकर दुखी करेगा। अभिप्राय यह है कि जब यह दुर्लभ मनुष्यशरीर प्राप्त हो गया है तो इसे यों ही नष्ट नहीं कर देना चाहिये, किन्तु उससे जो अपना अभीष्ट सिद्ध हो सकता है- संयमादिके द्वारा मुक्तिलाभ हो सकता है- उसे अवश्य सिद्ध कर लेना चाहिये ॥ १९४ ॥ प्रारम्भ में शरीर उत्पन्न होता है, इस शरीरमें दुष्ट इन्द्रियां होती हैं, वे अपने अपने विषयोंको चाहती हैं; और वे विषय मानहानि (अपमान), परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गतिको देनेवाले हैं। इस प्रकारसे समस्त अनर्थोकी परम्पराका मूल कारण वह शरीर ही है ॥ १९५ ॥ अज्ञानी जन शरीरको पुष्ट
मु (.) मानं, म (नि.) मान: 2 ज स अबमोदर्य तं शरीरकं ।