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बाल्याद्यवस्थासु धर्मस्य दुष्करत्वम्
बाल्ये वेत्सि न किचिदप्यपरिपूर्णाङगो हितं वाहितं कामान्धः खलु कामिनीवुमघने भ्राम्यन् वने यौवने ।
स्यान्नान्यथेति दर्शयन्नाह-- बाल्येत्यादि । बाल्ये बालत्वे । , अपरिपूर्णाङगः अपुष्टाङगः सन् । कामान्धः कामेन अन्ध: विवेकपराङ्मुखः । कामिनीद्रुमधने कामिनीलक्षणद्रुमैः घने, ते वा घना यत्र वने यौवमलक्षणे वने । भ्राम्यन् न किंचिद्धितमहितं वा वेत्सि । मध्ये मध्यमावस्थायाम् । बृद्धतृषा वृद्धा महती सा चासो तृट् वृद्धतृट् तया। बसु द्रव्यम् । अजितुम् ।
हित-अहितको नहीं जानता है । यौवन अवस्थामें कामसे अन्धा होकर स्त्रियोंरूप वृक्षोंसे सघन उस यौवनरूप वनमें विचरता है, इसलिये यहाँ भी वह हिताहितको नहीं जानता है । मध्यम (अधेड) अवस्थामें पशुके समान अज्ञानी होकर बढो हुई तृष्णाको शान्त करनेके लिये खेती व वाणिज्य आदिके द्वारा भनके कमानेमें तत्पर रहकर खिन्न होता है,अतः इस समय भी हिताहितको नहीं जानता है तथा वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर वह अधमरेके समान होकर शरीरसे शिथिल हो जाता है, इसलिये यहां भी हिताहितका विवेक नहीं रहता है। ऐसी दशामें हे भव्यजीव ! कौन-सी अवस्थामें धर्मका आचरण करके तू अपने जन्मको सफल कर सकता है ?॥ विशेषार्थ-बाल्यावस्थामें शरोरके परिपुष्ट न होनेसे प्राणी अपने हिताहितको ही नहीं समझ सकता है । यौवन अवस्थामें प्रायः वह कामसे पीडित होकर विषयसामग्रीको खोजमें रहता है। इसके पश्चात् अधेड अक्स्थामें वह धनके कमानेमें आसक्त होकर उसके द्वारा वृद्धिंगत धनकी तृष्णाको समाप्त करना चाहता है,परंतु इससे उसका शांत होना तो दूर ही रहा,वह उत्तरोत्तर बढती ही अधिक है। अब रही वृद्धावस्था, सो यहां समस्त इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं,शरीर रोगाक्रांत हो जाता है, तथा स्मृति भी जाती रहती है । इस प्रकारसे वे सब अवस्थायें यों ही बीत जाती हैं और वह अज्ञानी प्राणी कुछ भी आत्महित नहीं कर पाता । किन्तु हां जो विवेकी प्राणी हैं वे यौवन अवस्थामें विषय