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आत्मानुशासनम्
[श्लो० ८९मध्ये वुद्धतृषाजितुं वसु पशुः क्लिश्नासि कृष्यादिभि
द्धिक्येऽर्धमृतः2 क्व जन्म फलि ते धर्मो भवेनिर्मलः ॥८९॥ बाल्येऽस्मिन् यदनेन ते विरचितं स्मतुं च तन्नोचितं मध्ये चापि धनार्जनव्यतिकरस्तन्नास्ति यत्नापितः ।
पशुः अज्ञः सन् । क्लिश्नासि । कैः । कृष्यादिभिः । अतस्तत्रापि न किंचिद्धितम् अहितं वा वेत्सि । वाद्धिके क्ये वृद्धत्वे अर्धमृतः क्वचिदपि व्यापारे अक्षमः,
। अवस्था विशेषे । जन्म । ते तक। फलि सफलं स्यात् । तथा धर्मो भवेनिश्चल: ।। ८९॥ अवस्थात्रयेऽपि अपकारकस्य कर्मणो वशेनेदानीं भवतो
सुखको भोग करके तत्पश्चात् उसे उच्छिष्टके समान छोड देते हैं
और आत्मकल्याणके मार्गमें प्रवृत्त हो जाते हैं। कुछ ऐसे भी महापुरुष होते हैं जो उन कष्टदायक विषयोंमें अनुरक्त न होकर प्रारम्भमें ही संयम एवं तप आदिके साधनेमें प्रवृत्त हो जाते हैं। परन्तु ऐसे महापुरुष विरले ही हैं, अधिक प्राणी तो वे ही अज्ञानी जीव हैं जो पूर्वोक्त अवस्थाओं से किसी भी अवस्थामें आत्महितको नहीं करते हैं। ८९ ॥ हे दुर्बुद्धि प्राणी! इस विधि (कर्म) ने बाल्यकालमें जो तेरा अहित किया है उसका स्मरण करना भी योग्य नहीं है । मध्यम अवस्थामें भी ऐसा कोई दुख नहीं है जिसे कि उसने धनोपार्जन आदि कष्टप्रद कार्योंके द्वारा तुझे न प्राप्त कराया हो। वृद्धावस्थामें भी उसने तुझे तिरस्कृत करके निर्दयतापूर्वक दांत तोड देने आदिका प्रयत्न किया है। फिर देख तो सही कि तेरा इतना अहित करनेपर भी आज भी तू उक्त कर्मके ही वशीभूत होकर प्रवृत्ति करनेकी इच्छा करता है। विशेषार्थ-- यह अज्ञानी प्राणी दूसरोंके विषयमें हित और अहितकी कल्पना करके तदनुसार उन्हें मित्र और शत्रु समझने लगता है। परन्तु वास्तवमें जो उसका अहितकारी शत्रु कर्म है उसकी ओर इसका ध्यान ही नहीं जाता है । जीव बाल्यावस्थामें जो गर्भ एवं जन्म
1 मु (ज.) पशो। 2 मु (जै. नि.) वृद्धो वार्द्धमृतः । 3 मु (ज.) फलितं । 4 मु (ज. नि.) स्तन्नार्पितं यत्त्वयि ।