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अवस्थात्रयेऽपि कर्मपरवशता
वाक्ये प्यभिभूय दन्तदलनाद्याचेष्टितं निष्ठुरं पश्याद्यापि विधेर्वशेन चलितुं वाञ्छ त्यहो दुर्मते ॥ ९० ॥
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वर्तितुम् अनुचितमिति शिक्षां प्रयच्छन्नाह-- बाल्येत्यादि । अनेन विधिना विरचितं कृतम् । व्यतिकरैः प्रघट्टकैः । नापितः न प्रापितः । अभिभूय पराभवं कृत्वा । आचेष्टितम् आचरितम् । निष्ठुरम् अमनोज्ञम् । चलितुं प्रवर्तितुम् ||१०||
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आदिके असह्य दुखको भोगता है उसका कारण वह कर्म ही है । तत्पश्चात् यौवन अवस्थामें भी कुछ कर्मके ही उदयसे प्राणी कुटुम्बके भरण-पोषणकी चिन्तासे व्याकुल होकर धनके कमाने आदिमें लगता है और निरन्तर दुःसह दुःखको सहता है । इसी कर्मके निमित्तसे वृद्धावस्थामें इन्द्रियां शिथिल पड जाती हैं, शरीर विकृत हो जाता है, और दांत टूट जाते हैं । इस प्रकार जो कर्म सब ही अवस्थाओं में उसका अनिष्ट कर रहा है उसे अहितकर न मानकर यह अज्ञानी प्राणी आगे भी उसीके वश में रहना चाहता है । लोकमें देखा जाता है कि जो मनुष्य किसीका एक बार भी अनिष्ट करता है उससे वह भविष्य में किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रखता । इसी प्रकार यदि कोई दांत तोडना तो दूर रहा, किन्तु यदि दांत तोडने के लिये कहता ही है तो मनुष्य उसे अपना अपमान करनेवाला मानकर यथाशक्ति उसके प्रतीकारके लिये प्रयत्न करता है । फिर देखो कि जो कर्म एक बार ही नहीं, किन्तु बार बार प्राणीका अनिष्ट करता है तथा दांत तोडने के लिये कहता ही नहीं, बल्कि वृद्धावस्था में उन्हें तोड ही डालता है; उस अहितकर कर्म के ऊपर इस प्राणीको क्रोध नहीं आता । इसीलिये उसका प्रतीकार करना तो दूर रहा, किन्तु वह भविष्य में भी उसी कर्मके अधीन रहना चाहता है ।। ९० ।। हे वृद्ध ! तेरे कान दूसरोंके निन्दावाक्योंको नहीं सुननेकी इच्छासे ही मानो तिरस्कृत अर्थात् नष्ट हो गये - बहरे हो गये । नेत्र मानो तेरी घृणित अवस्थाको देखने में असमर्थ होकर ही अन्धेपनको प्राप्त हो गये हैं । यह
1 मु (जै. नि ) वार्द्धक्ये |