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आत्मानुशासनम्
[श्लो० ८८
अव्युच्छिन्नैः सुखपरिकरालिता लोलरम्यः श्यामाङ्गीनां नयनकमलरचिता यौवनान्तम् । धन्योऽसि त्वं यदि तनुरियं लब्धबोधे गीभिदग्धारण्ये स्थलकमलिनीशङ्कयालोक्यते ते ॥ ८८॥
ष्ठानमनुतिष्ठतो भवत: सुलालितापि तनूर्यदीत्थं वने मृगीभिः दृश्यते तदा धन्योऽसीत्याह-- अव्युच्छिन्नैरित्यादि। अव्युच्छि नैः निरन्तरः। सुखपरिकरः 'स्रग्वनितादिभिः । लालिता उपचयं नीता । तथा अचिंता अनवरतमवलोकिता ।
कैः । नयनकमलः । कथंभूतः। लोलरम्यः चञ्चलरमणीयः। कासाम् । श्यामागीनां उत्तमनायिकानाम् । कथमच्चिताः । यौवनान्तं यौवनमध्यं यथा भवत्येवम् । लब्धबोधेः प्राप्तरत्नत्रयस्य । दग्धेत्यादि-दग्धा चासो अरण्ये अटव्यां स्थलकमलिनी च तस्याः शङ्कया संदेहेन ॥ ८८ ।। इत्यमेव त्वदीय जन्म सफल
होनेवाली सुख-सामग्रीसे पालित और यौवनके मध्यमें सुन्दर स्त्रियोंके चंचल एवं रमणीय नेत्रोंरूप कमलोंसे पूजित अर्थात् देखा गया ऐसा वह तेरा शरीर विवेकज्ञानके प्राप्त होनेपर यदि जले हुए वनमें हिरणियोंके द्वारा स्थलकमलिनीकी आशंकासे देखा जाता है तो तू धन्य है- प्रशंसाके योग्य है ॥ विशेषार्थ- जिसने निरन्तर सुखसामग्रीको प्राप्त करके विषयसुखका अनुभव किया है तथा यौवनके समयमें जिसको अनेक सुन्दर स्त्रियां चाहती रही हैं वह यदि विवेकज्ञानको प्राप्त करके वनमें स्थित होता हुआ दुर्द्धर तपका आचरण करता है तो तपसे कृश उसके सुकुमार शरीरको देखकर हिरणियोंको जंगलमें आगसे जली हुई स्थलकमलिनीका भ्रम होने लगता है। ऐसे वे भव्यजीव ही वास्तवमें पुण्यशाली हैं जिन्हें समस्त सुखसामग्रीके सुलभ रहनेपर भी आत्मकल्याणके लिये उसे छोडनेमें किसी प्रकार क्लेशका अनुभव नहीं हुआ। वे स्तुतिके योग्य हैं। आश्चर्य तो उन जीवोंके ऊपर होता है जो कि यथेष्ट सुखसामग्रीके न मिलनेसे निरन्तर दुखी रहकर भी तद्विषयक मोहको नहीं छोडना चाहते हैं ॥ ८८ ॥ प्राणी बाल्यावस्थामें शरीरके पुष्ट न होनेसे कुछ भी