________________
आत्मानुशासनम्
[श्लो० ९३हंसन भुक्तमतिकर्कशमम्भसापि नो संगतं दिनविकासि सरोजमित्थम् । नालोकितं मधुकरेण मृतं वृथव प्रायः कुतो व्यसनिनां स्वहिते विवेकः॥९३॥
प्रजैव दुर्लभा सुन्छु दुर्लभा सान्यजन्मने ।
तां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ते ते शोच्याः खलु धीमताम् ॥ ९४॥ हिताहितमपरिभावयता संसारे मरणादिदुःखमनुभूतमिति सदृष्टान्तं दर्शयन्नाह-- हंसरित्यादि । हंसः पक्षिविशेषैः पुरुषविशेषैश्च गणधरदेवादिभिः । न भुक्तं न भक्षितं न सेवितं वा । यतः अतिकर्कशम् अकोमलं संसारदुःखदायि च । अम्भसा जलेन स्वच्छस्वमावेन च । नो संगतं नैकतां गतम् । दिनविकासि दिवसे असंकुचितम् । सरोजं पद्मं शरीरं च । सर इव शरीरं शुक्रशोणितसमुदाय:, तत्र जातं इति कृत्वा । इत्थम् अनेन प्रकारेण । नालोकितं मधुकरेण भ्रमरेण विटेन च ।। ९३ ॥ तदवलोकने च सम्यग्ज्ञानभाव: कारणम्, संसारे परिभ्रमतः प्राणिन: तत्प्राप्तेरतिदुर्लभत्वादित्याह- प्रज्ञेवेत्यादि । प्रजैव, न भोगोपभोगादिकम् । अन्यजन्मने परत्र निमित्तम् । प्रमाद्यन्ति अकृतादरा भवन्ति ।।९४॥ परिप्राप्तप्रज्ञानामपि कि जिस प्रकार भ्रमर कमलके विषयमें यह नहीं सोचता है कि इसका भक्षण हंस नहीं करते हैं, वह (कृतघ्न) जिस जलमें उत्पन्न हुआ है उसीसे अलिप्त रहता है, तथा वह रात्रिमें मुकुलित होकर प्रागोंका घातक बनेगा; इसीलिए वह उसमें आसक्त रहकर वहीं मरणको प्राप्त होता है। ठीक इसी प्रकारसे विषयी जन भी यह विवार नहीं करते हैं कि इन विषयोंका उपभोग हंसोंके समान महात्मा पुरुषोंने नहीं किया है. ये सर्वदा रहनेवाले नहीं हैं-- देखते देखते नष्ट होनेवाले हैं, तथा आत्मस्वभाव के प्रतिकूल होकर प्राणीको नरकादि दुर्गतियोंमें ले जानेवाले हैं; इसीलिए वे उनमें आसक्त होकर उसी भ्रमरके समान जन्म-मरणादिके अनेक दुःखोंको सहते हैं । सो यह कुछ आश्चर्यजनक बात नहीं है, कारण कि व्यसनी जनोंका ऐसा स्वभाव ही होता है-- उन्हें कभी अपने हितका विवेक नहीं रहता है ॥ ९३ ॥ प्रथम तो हिताहितका विचार करनेरूप बुद्धि ही दुर्लभ है, फिर वह परभवके हितका विवेक तो और भी दुर्लभ है। उस विवेकको प्राप्त करके भी जो जीव प्रमाद करते हैं वे बुद्धिमानोंके लिये सोचनीय होते हैं । विशेषार्थ- संसारमें एकेन्द्रिय आदिको लेकर चौइन्द्रियतक सब ही प्राणी मनसे रहित होते हैं, इसीलिये उन्हें