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शरीरे तिष्ठतो दोषासक्तिः
अतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत् प्रीतिरिति हि जनवादः । तं किमिति मृषा कुरुषे दोषासक्तो गुणेष्वरतः ॥ ९२ ॥ जनवादः लोकवादः । तं जनवादम् । किमिति इति एवं वक्ष्यमाणन्यायेन किं मृषा कुरुष । दोषा हि रागद्वेष मोहादयः अतिपरिचिताः, सर्वत्र सर्वदा सर्वे: प्राणिभिः अनादिसंसारे अनुभूतत्वात् । गुगास्तु सम्यग्दर्शनादयः नवाः, कदाचिदपि अननुभूतत्वात् । ततो दोषेषु आसक्तेन गुणेषु च अनुराग रहितेन भवता जनवादोऽसत्यः कृत: इति ।। ९२ ।। दोषासक्तेन च व्यसनिना
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है कि जब घरमें आग लग जाती है तब उसके भीतर स्थित प्राणी व्याकुल होकर बाहिर निकलने का प्रयत्न करते हैं; परन्तु वह बेपुध हुआ वृद्व उस नष्टप्राय शरोरसे मोहको नहीं छोडता और इसलिये वह परभत्रको सुखय बनाने के लिये कुछ प्रयत्न भी नहीं करता है ।। ९१ ॥ अत्यन्त परिचित वस्तुमें अनादरबुद्धि और नवीनमें प्रेम होता है, यह जो किंवदन्ती ( प्रसिद्धि ) है उसे तू दोषों में आसक्त तथा गुणों में अनुराग रहित होकर क्यों असत्य करता है ? ॥ विशेषार्थ - लोकमें प्रसिद्धि है कि जो वस्तुएं अनेक बार परिचय में ( उपभोग में) आ चुकी हैं उनमें अनुराग नहीं रहता है, इसके विपरीत जो वस्तु पूर्व में कभी परिचय में नहीं आयी है उसके विषय में प्राणीका विशेष अनुराग हुआ करता है । परन्तु पूर्वोक्त जीवकी दशा इसके सर्वथा विपरीत है- जो दोष ( राग-द्वेषादि ) जीवके साथ चिर कालसे सम्बद्ध हैं उनसे वह अनुराग करता है तथा जो सम्यग्दर्शनादि गुण उसे पूर्व में कभी भी नहीं प्राप्त हुए हैं उनमें वह अनुराग नहीं करता है । इस प्रकारसे वह उपर्युक्त लोकोक्तिको भी असत्य करना चाहता है ।। ९२ ।। कमलको हंस नहीं खाते हैं, वह जलमें उत्पन्न होकर भी उससे चूंकि संगत नहीं होता है अतएव कठोर है, तथा वह दिन में विकसित होकर रात्रि में मुकुलित हो जाता है । यह सब विचार भ्रमर नहीं करता है । इसलिये वह उसकी गन्धमें आसक्त होता हुआ रात्रि में उसके संकुचित हो जानेपर उसीके भीतर मरणको प्राप्त होता है । ठीक है - व्यसनी जनको अपने हिताहितका विचार नहीं रहता है ॥ विशेषार्थ - यहां भ्रमरका उदाहरण देकर यह बतलाया है