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मात्मानुशासनम्
तथा अतृप्तिका कारण अथवा हानि-वृद्धिसे सहित होनेके कारण विषम है १। स्वामी समन्तभद्र भी निष्कांक्षित अंगके लक्षणमें कहते हैं कि वह विषयजन्य सुख प्रथम तो कर्माधीन है-जब सातावेदनीय आदि पुण्य कर्मोका उदय होगा तब ही वह उपलब्ध हो सकता है, न कि अन्यथा। दूसरे कर्माधीन होकर भी वह स्थिर रह सकता हो, सो भी नहीं है-- वह नियमसे नष्ट होनेवाला है। तीसरे,उसकी उत्पत्ति दुःखोंसे अन्तरित हैबीच बीचमें अनेक दुख भी अवश्य प्राप्त होनेवाले हैं। कारण कि सुख और दुखका यह क्रम चक्रके समान निरंतर चालू रहता है। कहा भी है
. सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् ।
द्वयमेतद्धि जन्तूनामलंघ्यं दिन-रात्रिवत् ॥ अर्थात् जिस प्रकार दिनके बाद रात और फिर रातके बाद दिनका प्रादुर्भाव नियमसे हुआ करता है उसी प्रकार सुखके बाद दुख और फिर दुखके बाद सुख भी नियमसे उत्पन्न होता ही रहता है । इस प्रकृतिके नियमका कभी उल्लंघन नहीं होता है। इसके अतिरिक्त वह संसारकी परंपराके बढानेवाले पापबन्धका भी कारण है । अत एव ऐसे विनश्वर सुखमें नित्यत्वके दुरभिनिवेशको छोडकर उसकी अभिलाषा न करना, यह सम्यग्दर्शनका निष्कांक्षित अंग माना गया है। ___ भगवान् कुंथुनाथ जिनेंद्र तीर्थंकर तो थे ही,साथ ही वे चक्रवर्ती भी थे। उनके पास विषय-भोगोंकी कमी नहीं थी। फिर भी उन्होंने जन्म, जरा एवं मरणके दुःखसे छुटकारा पानेके लिये-निराकुल एवं निर्बाध स्वाधीन सुख (मोक्षसुख)की प्राप्तिकी इच्छासे-उस अपरिमित विभूतिको छोडकर दैगम्बरी दीक्षा ही स्वीकार की थी। उनकी स्तुतिमें स्वामी समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि विषयतृष्णारूप अग्निकी ज्वालायें प्राणीको
१. सपरं बाधासहि विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं ।
जं इंविएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तधा ॥ प्र. सा. १, ७६. २. कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्थाश्रदाऽनाकांक्षणा स्मृता ॥ र. श्रा. १२.