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प्रस्तावना
निरन्तर जला रही हैं । उनकी शान्ति अभीष्ट इन्द्रियविषयोंको विभूतिसे सम्भव नहीं है, उससे तो वे उत्तरोत्तर वृद्धिको ही प्राप्त होनेवाली हैं; क्योंकि, ऐसी स्थिति है- जैसे जैसे वे विषयभोग प्राप्त होते जाते हैं वैसे ही वैसे प्राणीको तद्विषयक इच्छा भी, घीकी आहतियोंसे अग्निके समान, उत्तरोत्तर बढती ही जाती है । उक्त इन्द्रियविषय कुछ समयके लिये केवल शरीरके संतापको ही दूर कर सकते हैं- वे उन तष्णाज्वालाओंको कभी शान्त नहीं कर सकते हैं। इसी कारण हे जितेन्द्रिय कुन्थुजिनेन्द्र ! आप उस विषयजनित सुखसे विमुख हुए हैं- आपने उस स्वाधीन सुखको प्राप्त करने के लिये चक्रवतिके विभूतिको भी तुच्छ तृणके समान छोड दिया है १ ।
उक्त सुख-दुखका विवेक न होनेसे प्राणीमात्रके चाहनेपर भी वह सुख सबको नहीं प्राप्त हो पाता। इसके लिये यह बतलाया है कि जिस समीचीन सुखको सब ही शीघ्रतासे प्राप्त करना चाहते हैं वह सब कर्मोंका-द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मका-क्षय हो जानेपर उपलब्ध होता है। और वह सब कर्मों का क्षय जिस सम्यकचारित्रके ऊपर निर्भर है वह सम्यग्ज्ञानका अविनाभावी है। यह सम्यग्ज्ञान रागादि समस्त दोषोंसे रहित हुए आप्तके द्वारा प्ररूपित परमागमके सुननेसे प्राप्त होता है। अतएव परम्परासे उस सुखका मूल कारण जो आप्त है उसका ही युक्तिपूर्वक विचार करके आश्रय लेना चाहिये- उसका ही आराधन करना चाहिये (९)२ ।
सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तपके भेदसें आराधना १.तष्णाचिषः परिवहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवद्धिरेव । स्थित्यैव कायपरितापहरं निमित्तमित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत्
स्व. स्तो. १७, २. २. इसी आशयका एक पुरातन पद्य श्री आचार्य विद्यानन्दने श्लोकवातिकके प्रारम्भमें भी उद्धृत किया हैअमिमतफलसिद्धरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य
चोत्पत्तिराप्तात्
इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धर्न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति॥
श्लो. वा. पृ. २.