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आत्मानुशासनम्
चार प्रकारकी है । प्रकृत ग्रन्थ में प्रकारान्तरसे इन चारों आराधनाओंका विवेचन किया गया है। उनमें प्रथम आराधनारूप सम्यग्दर्शनका विवेचन करते हए उसे अचल-प्रासाद (मोक्ष-महल) के ऊपर चढनेवाले भव्य जीवोंके लिये प्रथम पायरी (सीढी) के समान बतलाया गया है। सात तत्त्व अथवा नौ पदार्थोके श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है। वह निसर्गज और अधिमगज अथवा सराग और वीतरागके भेदसे दो प्रकारका औपशमिकादिके भेदसे तीन प्रकारका तथा आज्ञासम्यक्त्व आदिके भेदसे दस प्रकारका भी माना गया है । जबतक यह सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता है तबतक मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान सम्यक्पनेको प्राप्त नहीं होते- वे मिथ्यारूप ही रहते हैं। किन्तु जैसे ही प्राणोके वह सम्यग्दर्शन प्रादुर्भूत होता है वैसे ही उक्त तीनों ज्ञान सम्यग्रूपताको प्राप्त कर लेते हैं । वह मूढता आदि पच्चीस दोषोंसे रहित तथा संवेग आदि१ गुणोंसे वृद्धिंगत होना चाहिये (१०)।
इस सम्यग्दर्शनका स्वरूप ग्रन्थांतरोंमें विभिन्न प्रकारसे पाया जाता है। यथा-श्री कुन्दकुन्दाचार्यने दर्शनप्राभूतमें छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया है । आगे इसी ग्रन्थमें उन्होंने जिनेन्द्रप्ररूपित जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानको व्यवहार सम्यग्दर्शन और आत्मा (आत्मनिश्चय) को निश्चय सम्यग्दर्शन कहा है३ । वे ही मोक्षप्राभृतमें कहते हैं कि हिंसासे रहित धर्म, अठारह दोषोंसे रहित देव, निर्ग्रन्थ गुरु और प्रवचन (आगम) के विषय में जो श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सम्यग्दर्शन है४ । १. संवेओ णिवेओ णिदण गरहा य उवसमो भत्ती।
वच्छल्लं अगुकंपा अठ्ठ गुणा हुंति सम्मते ॥ वसु. श्रा. ४९. २. छद्दन्व णव पयत्या पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा ।
सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुगेयव्यो । द. प्रा. १९. ३. जीवादीसदहणं सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णतं ।। __ ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥ द. प्रा. २०. ४. हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे । णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होई सम्मत्तं ॥ मो. प्रा. ९०.