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प्रस्तावना
उन्हें निराकुल एवं निर्बाध शाश्वतिक सुखको प्राप्त करा देता है वही वास्तवमें धर्म कहा जाता है१। कारण यह कि वस्तुस्वभावका नाम धर्म है । सो यहां अन्य वस्तुओंकी विवक्षा न होकर एक मात्र मात्मा अपेक्षित है । अतएव उसके स्वभावभूत जो सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय है उसे धर्म समझना चाहिये । यही मोक्षका मार्ग है। इसके विपरीत जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं ने अधर्म होनेसे मोक्षके मार्ग न होकर संसारके ही कारण होते हैं ।
सुख-दुखविवेक अब यहां हमें यह विचार करना चाहिये कि वास्तविक सुख क्या है और वास्तविक दुख क्या है । सातावेदनीय कर्मके उदयसे प्राणीको कुछ कालके लिये जो सुखका अनुभवन होता है वह यथार्थमें सुख नहीं है, किंतु सुखका आभास है । कारण यह है कि इन्द्रियविषयोंसे जो प्राणीको सुख प्राप्त होता है वह बिजलीके प्रकाशके समान विनश्वर होकर उत्तरोत्तर उस विषयतृष्णाको ही बढाता है जो कि एक महान्याधिस्वरूप है । यह विषयतृष्णा प्राणीको निरंतर संतप्त करती है । इसलिये वह उस सन्तापको दूर करनेके लिये उन उन अभीष्ट विषयोंकी प्राप्तिमें लगकर घोर परिश्रम करता है व स्वयं दुखी होता है। श्री कुन्दकुंदाचार्य भी इस इन्द्रियजन्य विषयसुखको दुख ही बतलाते हैं । वे कहते हैं कि इन्द्रियोंसे जो सुख उपलब्ध होता है वह पर द्रव्योंकी अपेक्षा रखनेके कारण पराधीन, भूख-प्यास बादिकी अनेक बाधाओंसे सहित, प्रतिपक्षभूत असातावेदनीय आदिके उदयसे संयुक्त होनेसे विनश्वर, भोगकांक्षा आदिके दुर्ध्यानसे पापका बन्धक, १. देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिबहणम् ।
संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥र. श्रा. २. २. सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः॥ र. श्रा. ३३, शतहृदोन्मेषचलं हि सौख्यं तृष्णामयाप्यायनमात्रहेतुः ।
वृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजलं तापस्तदायासयतोत्यवादीः॥स्व.स्तो.३,३.