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विषय- परिचय
अभीष्ट प्रयोजन
Sitara सब ही प्राणी चूंकि दुःखसे डरते है और सुखकी अभिलाषा करते हैं, इसीलिये इस आत्मानुशासन ग्रन्थके द्वारा उन्हें उक्त प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये आत्मस्वरूपकी शिक्षा दी गई है (श्लोक २ ) । इसमें आचार्य गुणभद्रने सर्वप्रथम यह निर्देश कर दिया है कि यहां जो उपदेश दिया जावेगा वह यद्यपि सुनने के समय कटु लग सकता है, परन्तु वह परिणाममें कडुवी औषधिके समान हितकर ही होगा । इसलिये सुखाभिलाषी भव्य जीवोंको उससे भयभीत नहीं होना चाहिये (३) । यह है भी ठीक, क्योंकि, ' हितं मनोहरि च दुर्लभं वच: ' इस प्रसिद्ध नीतिके अनुसार जो हितोपदेश होते हैं उनके वचन प्रायः श्रोता जनोंको मनोहर नहीं प्रतीत होते हैं । और इसके विपरीत जिनके वचनोंमें मधुरता . दिखती है वे प्रायः हितोपदेशक नहीं होते हैं । अतएव ग्रन्थ के प्रारम्भमें उसके कर्ता द्वारा श्रोता जनोंको उक्त प्रकारसे सावधान कर देना उचित ही है । आगे वे उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट कर देते हैं, जिस प्रकार जलसे रिक्त होकर गर्जना करनेवाले बादल बहुत, किन्तु उक्त जलसे परिपूर्ण होकर वर्षा करनेवाले वे बहुत ही थोडे देखे जाते हैं; उसी प्रकार निरर्थक या कुटिलतापूर्वक बकवाद करनेवाले चापलूस मनुष्य तो बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं, किन्तु जगत्का कल्याण करनेवाले यथार्थ वक्ता बहुत ही अल्प मात्रामें उपलब्ध होते हैं (४) ।
आगे चलकर वक्ता और श्रोता इन दोनों के ही कुछ आवश्यक गुणों का उल्लेख करते हुए यह बतलाया है कि जब यह भली भाँति प्रसिद्ध है कि पापसे प्राणीको दुख और धर्मसे सुख प्राप्त होता है तब सुखाभिलाषी मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह उस दुखदायक पापको छोडकर सुखप्रद धर्मका ही आचरण करे ( ८ ) । स्वामी समन्तभद्राचार्यने धर्मका यही स्वरूप बतलाया है कि जो ज्ञानावरणादि कर्मोंको निर्मूल करता हुआ प्राणियोंको जन्म-मरणादिरूप संसारके महान् दुखसे छुडाकर