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आत्मानुशासनम् [श्लो०.२६७स्वाधीन्याद्दुःखमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम् ।
स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धाः सुखिनः कथम् ॥ २६७ ॥ फलस्य अनन्तसौख्यस्य वानुभविता । ननु भोक्तृत्वेऽप्यात्मनः सुखज्ञानयोरभावस्तयोः प्रकृतिधर्मत्वात मुक्ती सर्वथा असंभवाच्चेति वदन्तं सांख्यं प्रत्याह-- सुखी बुधः सुखी सुखात्मकः बुधो ज्ञानात्मकः, तदभावे आत्मनोऽप्यभावः उपयोगलक्षणत्वात्तस्य । एतेनेदं प्रत्याख्यातम्-"अकर्ता निर्गुण: शुद्धो नित्य: सर्वगतोऽक्रिय:। । अमूर्तव्चेतनो भोक्ता आत्मा कपिलशासने ।।" देहमात्रः शरीरपरिमाणः, न पुनः सर्वगतः । मलैमुक्तः सकलकर्मरहितः । गत्वोर्ध्वमचल: ऊर्ध्वलोकाग्र गत्वा अचल : स्थिर: आस्ते, नान्यत्र गच्छति अत्र वा पुनरागच्छतीति वा । प्रभुः ऐहिक-पारत्रिककार्येषु समर्थः, मुक्त: सन् सर्वजगद्वन्द्यो वा ।। २६६ ।। ननु सिद्धानां सुखसंपत्ति कारणाभावात्कथं सुखित्वमित्याह-- स्वाधीन्यादित्यादि । दुःखमपि कायक्लेशादिलक्षणं तपस्विनां यदि सुखमासीत् । कस्मात । स्वांधोन्यात् पराधीनत्वाभावात । तदधीनता हि दुःखम् , 'को नरक: परवशता' इत्यभिधानात् । तदा स्वाधीनसुखसंपन्ना' स्वाधीनम् इन्द्रिकर्मोंका कर्ता तथा निश्चयसे अपने चेतन भावोंका ही कर्ता है। इसी प्रकार वह व्यवहारसे पूर्वकृत कर्मके फलभूत सुख व दुखका भोक्ता तथा निश्चयसे वह अनन्त सुखका भोक्ता है । वह स्वभावसे सुखी और ज्ञानमय होकर व्यवहारसे प्राप्त हुए हीनाधिक शरीरके प्रमाण तथा निश्चयसे वह असंख्यातप्रदेशी लोकके प्रमाण है । वह जब कर्ममलसे रहित होता है तब स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करके तीनों लोकोंका प्रभु होता हुआ सिद्धशिलापर स्थिर हो जाता है ॥ २६६ ।। तपस्वी जो स्वाधीनतापूर्वक कायक्लेशादिके कष्टको सहते हैं वह भी जब उनको सुखकर प्रतीत होता है तब फिर जो सिद्ध स्वाधीन सुखसे सम्पन्न हैं वे सुखी कैसे न होंगे? अर्थात् अवश्य होंगे। विशेषार्थ- ऊपरके श्लोकमें सिद्धोंको सुखी बतलाया गया है। इसपर यह शंका हो सकती थी कि सुखकी साधनभूत जो सम्पत्ति आदि है वह तो सिद्धोंके पास है नहीं, फिर वे सुखी कैसे हो सकते हैं ? इसके उत्तरमें यहां यह बतलाया है कि पराधीनताका जो अभाव है वही वास्तवमें सुख है, और वह सिद्धोंके पूर्णतया विद्यमान
1 प ज सर्वगतक्रियः ।