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ग्रंथोपसंहार
इति कतिपयवाचां गोचरीकृत्य कृत्यं रचितमुचितमुच्चैश्चेतसां चित्तरम्यम् । इदमविकलभन्तः संततं चिन्तयन्तः सपदि विपदपेतामाश्रयन्ते श्रियं ते ॥ २६८॥
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याद्यतायतं कर्मविविक्तात्मस्वरूपत्यं तच्च तत्सुखं च तत्संपन्नं जातं येषाम् तेन वा संपन्ना युक्ताः | २६७ ॥ ग्रन्थार्थमुपसंहृत्य तदर्थानुष्ठातृणां फलमुपदर्शयन्नाह - इतीत्यादि । इति एवमुक्तप्रकारेण । कतिपयवाचां स्वल्पवचनानाम् । गोचरीकृत्य वाचां विषयं कृत्वा । कृत्यम् अनुष्ठेयं चतुर्विवाराधनास्वरूपम् । उचितं योग्य मुक्तिप्रसाधने | उच्चैश्चेतसाम् उदारचितानाम् । चित्तरम्यं हृदयाल्हादकरम् । इदम् उक्त प्रकारमनुष्ठेयत्वम् | अविकलं परिपूर्णम् । अन्तः हृदयमध्ये | सपादि झटिति । विपदपेतां शाश्वतीम् । श्रियं मोक्षलक्ष्मीम् । ते संततम् अन्तश्चिन्तकाः । आश्रयन्ते प्राप्नुवन्ति ॥ २६८ ॥ ग्रन्थकारो ग्रन्थसमाप्ती स्वगुरोर्नामपूर्वक --
है । सम्पत्ति आदिके संयोगसे जो सुख होता है वह पराधीन है । इसलिये तदनुरूप पुण्यके उदयसे जब तक उन पर पदार्थों की अनुकूलता है तभी तक वह सुख रह सकता है - इसके पश्चात् वह नष्ट ही होनेवाला है | परन्तु सिद्धोंका जो स्वाधीन सुख है वह शाश्वतिक है- अविनश्वर है । देखो, साधुजन अपनी इच्छानुसार कायक्लेशादिरूप अनेक प्रकारके दुखको सहते हैं, परन्तु इसमें उन्हें दुखका अनुभव न होकर सुखका अनुभव होता है । इस प्रकार स्वाधीनतासे सहा जानेवाला दुख भी जब उनको सुखस्वरूप प्रतिभासित होता है तब भला प्राप्त हुए उस स्वाधीन सुखसे सिद्ध जीव क्यों न सुखी होंगे? वे तो अतिशय सुखी होंगे ही || २६७ ।। इस प्रकार कुछ थोडे-से वचनोंका विषय करकेउनका अश्रय ले करके जो यह योग्य कृत्य - अनुष्ठानके योग्य चार प्रका
की आराधनाका स्वरूप- रचा गया है वह उदार विचारवाले मनुष्योंके चितको आनन्द देनेवाला है । जो भव्य जीव इसका निरन्तर पूर्णरूपसे चितमें चिन्तन करते हैं वे शीघ्र ही समस्त विपत्तियोंसे रहित मोक्षरूप लक्ष्मीका आश्रय करते हैं || २६८ || जिन भगवान्की सेनारूप साधुओंके .
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