________________
४६
आत्मानुशासनम्
पर भी नहीं मालूम होता कि यह कौन-से महान् तपका फल है । विषयोंसे विरक्ति शास्त्रका परिशीलन, दया, दुराग्रहको नष्ट करनेवाली अने. कान्तबुद्धि, तथा अन्तमें विधिपूर्वक समाधिमरण; यह सब वास्तवमें महान तपके प्रभावसे ही महापुरुषों को उपलब्ध होता है (६७-६८)
मरण अनिवार्य है जन्म और मरण दोनोंमें अविनाभाव है। जिस प्रकार अरहटकी घटिकायें एक एक करके प्रतिसमय जलसे रहित होती जाती हैं उसी प्रकार प्राणीको आयु भी प्रतिसमय क्षीण होती जाती है। और जिस क्रमसे आयु क्षीण होती जाती है उसी क्रमसे शरीर भी दुर्बल होता जाता है । परन्तु जिस प्रकार चलती हुई नावके ऊपर बैठा हुआ मनुष्य नावके साथ चलते रहनेपर भी भ्रान्तिवश अपनेको स्थिर मानता है उसी प्रकार अज्ञानी प्राणी आयु एवं शरीरके प्रतिसमय क्षीण होनेपर भी भ्रान्तिसे अपनेको स्थिर मानता है (७२) । अनादिनिधन लोक रचनाके अनुसार नीचे नारक बिल, ऊपर स्वर्ग तथा मध्यमें स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रोंसे वेष्टित अढाई द्वीपमें मनुष्योंका निवास है। और अन्तमें वह सारा लोक तीन वातवलयोंसे भी घिरा हआ है। इसपर ग्रन्थकार कल्पना करते हैं कि विचारशील ब्रह्मदेवने यद्यपि मनुष्यों के संरक्षण का इतना भारी प्रयत्न किया है, किन्तु फिर भी वह उन्हें मृत्युसे नहीं बचा सका- मृत्यु होती है (७५) । वह मृत्यु कब, कहां और किस प्रकारसे प्राप्त होगी; इसका जब निश्चय नहीं किया जा सकता है तब विवेकी जनोंको निरन्तर आत्महितमें निरत रहना चाहिये - संयमादिका परिपालन करते हुए उस मृत्युके संचारसे रहित क्षेत्र (मोक्ष) को प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये (७८-७९) ।
मनुष्य पर्याय और तप आराधना यहां मनुष्य पर्यायकी काने गन्नेसे तुलना करते हुए यह बतलाया है कि जिस प्रकार गन्ना अनेक पोरोंसे संयुक्त होता है उसी प्रकार मनुष्य पर्याय भी अनेक आपदाओंसे व्याप्त होती है, गन्ना यदि अन्तिम भागमें रससे हीन होता है तो मनुष्य पर्याय भी अन्तिम अवस्था (बुढापा) में न.रस-विषयोपभोगादिके आनन्दसे रहित होती है, जैसे गन्ना मूल भागमें