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प्रस्तावना
अज्ञस्य दुःखौघमयं ज्ञस्यानन्दमयं जगत् ।
अन्धं भुवनमन्धस्य प्रकाशं तु सचक्षुषः ।। जिस प्रकार अन्धा मनुष्य विश्वको अन्धकारमय तथा निर्मल नेत्रोंसे संयुक्त मनुष्य उसे प्रकाशमय ही देखता है उसी प्रकार अज्ञानी जन जगतको दुखरूप तथा ज्ञानीजन उसे आनन्दमय ही मानते हैं- विवेकी जन विपत्तिके समयमें भी कभी खिन्न नहीं होते हैं ।
जिस शरीरके आश्रयसे प्राणी विषयोंमें प्रवृत्त होता है वह ठीक कारागृह (जेल) के समान है- कारागार यदि मोटे गोटे लकडीके शहतीरोंसे या लोहमय गाटरोंके आश्रित होता है तो यह शरीर भी स्थूल हड्डियों के आश्रित है, कारागार जैसे रस्सियोंसे सम्बद्ध होता है वैसे ही शरीर भी शिरा व स्नायुयोंसे सम्बद्ध है; कारागार जहां कबेल आदिसे आच्छादित होता है वहां यह शरीर चमडेसे आच्छादित है, कारागारका संरक्षण यदि पहारेदार करते हैं तो इस शरीरका संरक्षण कर्म करते हैं, तथा कारागारका द्वार सांकलोंसे बन्द रहनेके कारण जिस प्रकार कैदी उसमेंसे बाहर नहीं निकल सकते हैं उसी प्रकार आयु कर्मका उदय रहनेसे प्राणी भी उस शरीरसे नहीं निकल सकते हैं (५९) । इस प्रकार उस शरीरकी कारागारके साथ समानता होनेपर भी आश्चर्य इस बातका है कि प्राणी उस कारागृहमें तो नहीं रहना चाहता है, किन्तु इस शरीररूप कारागारमें स्थित रहते हुए वह आनन्द भी मानता है । जो एरण्डकी पोली लकडी दोनों ओर अग्निसे जल रही हो उसके भीतर स्थित कीडा जिस प्रकार अतिशय दुखी होता है उसी प्रकार जन्म और मरणसे व्याप्त इस शरीरमें स्थित प्राणी भी अतिशय दुखी रहता है (६३) ।
सत्साधुप्रशंसा यहां तपस्वियोंकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि यह जो उनका स्वेच्छापूर्वक विहार (गमनागमन), दीनतासे रहित भिक्षाभोजन, गुणी जनोंकी संगति, रागादिके उपशमरूप शास्त्राभ्यासका फल और बाह्य पर पदार्थो मनकी मन्द प्रवृत्ति है ; उसके विषयमें बहुत कालसे विचार करने