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सेंसारिप्राणिनामवस्था
तत्तावत्स्मर सस्मरस्मितशितापाङपैरनङगायुधैवामानां हिमदग्धमुग्धतस्वद्यत्प्राप्तवानिर्धनः ॥५३॥ उत्पन्नोऽस्यसि दोषधातुमलवदेहोऽसि कोपादिवान् साधिव्याधिरसि प्रहीणचरितोऽस्यस्यात्मनो वञ्चकः ।
प्युद्वेगकारिणि, न केवलम् अनुभूयमाने किं तु स्मृतिपये स्मृतिविषयमात्रे अपि उद्वेगकारिणि अरतिसंतापत्रासजनके । दुःखानि वो कथंभूतानि । उद्वेगकारीणि । अलम् अत्यर्थेन । तद् दुःखं स्मर यत् प्राप्तवान् निर्धन: सन् । कैः कृत्वेत्याहे सस्मरेत्यादि । सस्मरस्मितं सकामहसितं सह तेन वर्तन्ते ये ते च ते शितापाङगाश्च कटाक्षाः तः । कथंभूतः । अनङगायुधैः कामबाणैः । वामानां स्त्रीणाम् । किंवत् । हिमदग्धमुग्धतरुवत् हिमेन दग्धश्चासौ मुग्धतरुश्च कोमलतरुस्तहत् ।। ५३ ।। संसारे परिभ्रमन्नेवंविधं धर्मम् आत्मनः पश्यन् किमिति वैराग्वं भवान्न बंजतीत्याह--- उत्पन्नोऽसीत्यादि । दोषर वातपितश्लेष्माणः ।
हे भव्य ! भनसे रहित तूने कामके शस्त्रों (बाणों) के समान स्त्रियों के कामोत्पादक मन्द हास्पयुक्त तीक्ष्ण कटाक्षोंसे विद्ध होकर बर्फसे जले हुए कोमल वृक्षके समान जो दुःख प्राप्त किया है उसका तो भला स्मरण कर ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय इसका यह है कि जो प्रागो सदा विषयभोगोंमें ही लिप्त रहते हैं उन्हे दोनों ही लोकोंमें दुख भोगनी पडता है। इस लोकमें तो उन्हें इसलिये दुख भोगना पड़ता है कि जिने सुन्दर स्त्रियों के मम्द हास्य एवं कटाक्षपात आदिके द्वारा वे कामसे पीडित होनेपर उन्हें प्राप्त करके अपनी वासनाको पूर्ण करना चाहते हैं वे उपयुक्त धन आदिके न रहनेसे उन्हें प्राप्त होती नहीं हैं। फिर भी वे यों ही संतप्त होकर उसके लिये कष्टकारक निष्फल प्रयत्न करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त उस विषयतृष्णासे जो पापका बन्ध होता है उसका उदय होनेपर नरकादि दुर्गतियोंमें जाकर परलोकमें भी वे दुःसंह दुःखोंको सहते हैं ॥५३॥ हे बार बार जन्मको धारण करनेवाले प्राणी! तू उत्पन्न हुआ है; वात-पित्तादि दोषों, रस-रुधिरादि सात धातुओं एवं मल-मूत्रादिसे सहित शरीरका धारक है; क्रोधादि कषायोंसे सहित है;