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आत्मानुशासनम्
[श्लौ० ५४मृत्युव्यात्तमुखान्तरोऽसि जरसा ग्रास्योऽसि जन्मिन् वृथा किं मत्तोऽस्यसि कि हिनारिरहिते किं वासि बद्धस्पृहः ॥५४॥
धातवः रुसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि । मला: मूत्रपुरीषादयः । आधिर्मन:पीडा । सह आधिव्याधिभ्यां वर्तते इति साधिव्याधिः । असि भवसि । मृत्युव्यात्तमुखान्तरः मृत्युना व्यात्तं प्रसारितं तच्च तन्मुखं च तस्य आन्तरं मध्यं तदस्ति इति । अतस आदेरः । इति । जरसा पास्यो वृद्धत्वेन कवलीकर्तव्य: । बद्धस्पृहः कृतानुबन्धः ।।५४॥ अहिते कृतानुबन्धोऽपि
आधि (मानसिक पीडा) और व्याधि (शारीरिक पीडा) से पीडित है, दुश्चरित्र है, अपने आपको धोका देनेवाला है, मृत्युके द्वारा फैलाये गये मुखके मध्यमें स्थित अर्थात् मरणोन्मुख है, तथा जरा (बुढापा) का ग्रास बननेवाला है। फिर ये अज्ञानो प्राणी! यह समझमें नहीं आता कि तू उन्मत्त होकर अपने ही हितका शत्रु (घातक) होता हुआ उन अहितकारक विषयोंका अभिलाषा क्यों करता है?। विशेषार्थजिस प्रकार पागल या शराबी मनुष्य हिताहितके विवेकसे रहित होकर स्वच्छंद प्रवृत्ति करता है तथा उसको अपने मरणका भी भय नहीं रहता है उसी प्रकार यह विषयोन्मत्त प्राणी भी अपने भले बुरेका ध्यान न रखकर जो हिंसादि कार्य आत्माका अहित करनेवाले हैं उनमें तो प्रवृत्त होता है तथा जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वदारसंतोष ( या पूर्णतया ब्रह्मचर्य) एवं अपरिग्रह आदि कार्य आत्माका हित करनेवाले हैं उनसे विमुख रहता है । ऐसा करते हुए उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि अब मैं बूढा हो गया हूं, मुझे किसी भी समय मृत्यु अपना ग्रास बना सकतो है,उसके पहिले क्यों न मैं कुछ आत्महित कर लूं। यही कारण है जो वह उस विषयतृष्णाके साथ मरणको प्राप्त होकर पुनः उस शरीरको धारण करता है जो स्वभावतः अपवित्र, रोगादिसे ग्रसित एवं राग-द्वेषादिका कारण है । इस प्रकारसे वह दूसरोंके साथ स्वयं अपने आपको भी धोका देकर इस दुखमय संसारमें बार बार परिभ्रमण करता रहता है ॥५४॥