________________
आत्मानुशासनम्
[श्लो० ५२श्वो यस्यानि यः स एव दिवसो ह्यस्तस्य संपद्यते स्थर्य नाम न कस्यचिज्जगदिदं कालानिलोन्मूलितम् । भ्रातान्तिमपास्य पश्यसि तरी प्रत्यक्षमणोर्न कि येनात्रैव मुहुर्मुहुर्बहुतरं बद्धस्पृहो भ्राम्यसि ॥५२॥ संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेप्युद्वेगकारिण्यलं दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् ।।
जगतः स्थितिमपश्यतो जनस्य स्यादित्याह-- श्व इत्यादि। यस्य वस्तुन: श्वी भावी दिवसोऽजनि अभूत् स एव दिवसो ह्यः अतीतः तस्य वस्तुनः संपद्यते । यतः एवम् अत: । स्थैर्यमित्यादि । कालानिलोन्मूलितं काल एव अनिलो वायु: तेन उन्मूलितं स्थितेः प्रच्यावितं किं न पश्यसि । भ्रान्तिम् अपास्य निराकृत्य सर्वथा नित्यत्वाभिनिवेशं परित्यज्य । प्रत्यक्षम् अक्ष्णोर्यथाभवत्येवम् । येन अदर्शनेन कारणेन वा । अत्रैव जगति बद्धस्पृहः कृताभिलाष: ।। ५२ ॥ एवंविध जगत्स्वरूपम् अपरिभावयता चतुर्गतिसंसारे दुःखान्यनेकधानुभूतानीत्याह-- संसार इत्यादि । संसारे नरकादिषु गतिषु । यानि दुःखानि प्रतिसेवितानि अनुभूतानि तान्येवमेवासताम् एवम् एव तिष्ठन्तु । कथंभूते संसारे । स्मृतिपथेऽ•
नाश करते हैं । कामी जनकी बुद्धि ऐसी भ्रष्ट हो जाती है कि जिससे वे उस असदाचरणमें प्रवृत्त होते हैं जिसकी कि साधु जन सदा निन्दा किया करते हैं। ये काम और क्रोध आदि दुष्ट पिशाचके समान हैं। उनसे पीडित होकर प्राणी हेयादेयका विचार न करके जिस किसी भी कार्यको करता है ॥५१॥ जो दिन जिस वस्तुके लिये कल (आगामी दिन) था वह उसके लिये कल (बीता हुआ दिन) हो जाता है। यहां कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, यह सब संसार कालरूप वायुसे परिवर्तित किया जानेवाला है । हे भ्रात ! क्या तुम भ्रमको छोडकर आखोंसे प्रत्यक्ष नहीं देखते हो, जिससे कि इन नश्वर बाह्य वस्तुओंके विषयमें ही बार बार इच्छा करके बहुत कालसे परिभ्रमण करते हो? ॥ ५२ ॥ जो संसार स्मरण मात्रसे भी अतिशय संतापको उत्पन्न करनेवाला है उसके भीतर नरकादि दुर्गतियोंमें पडकर तूने जिन दुःखोंको सहन किया है वे तो यों ही रहें, अर्थात् उन परोक्ष दुःखोंकी चर्चा करना तो व्यर्थ है। किन्तु