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आत्मानुशासनम्
इसी प्रकार ३९, ८७, १०८, १३४ और १३५ आदि कितने ही ऐसे श्लोक हैं जिनका भाव स्पष्ट नहीं हुआ है । कहीं कहीं अर्थको स्पष्ट करनेके लिये मूलकी अपेक्षा भी क्लिष्ट शब्दका उपयोग किया गया है । जैसे -- श्लोक १३२ में दण्डोलकरूप: ' (पगदण्डी ) ।
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श्लोक २३९ में शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप और सुख-दुःख इन छहका निर्देश करके उनमें प्रथम तीन (शुभ, पुण्य और सुख) को हितकारक व अनुष्ठेय बतलाया गया है तथा शेष तीनको अहितकारक - अननुष्ठेय ( परित्याज्य ) - बतलाया गया है । यहां टीकाकारने ' शेष - त्रयमथाहितम् ' इस चतुर्थ चरणका कोई अर्थ नहीं किया । आगेका श्लोक ( २४० ) इसी से सम्बंध रखता है । उसमें तत्राप्याद्यं परित्याज्यं' कहकर ' तत्र अपि से उन अहितकारक शेष तीन ( अशुभ, पाप और दुःख) को ग्रहण करके उनमें भी प्रथम (अशुभ) को ही परित्याज्य बतलाया है, क्योंकि उसका परित्याग कर देने पर शेष दोनों (पाप व दुख ) स्वयमेव नहीं रहेंगे । इसके पश्चात् ( उत्तरार्ध में ) पूर्व श्लोक में जिस शुभको अनुष्ठेय ( आचरणीय) बतलाया था उसे भी शुद्धोपयोगके आश्रयपूर्वक छोड देनेकी प्रेरणा करके अन्तमें उत्कृष्ठ पद (मोक्ष) की प्राप्तिकी सूचना की गई है । यह वस्तुस्थिति है । परन्तु उसका अर्थ स्पष्ट करते हुए टीकाकारने 'तत्र अपि' से उन ( परित्याज्य) शेष तीनको न लेकर उन अनुष्ठेय शुभादि तीनको ही लिया है और उनमें से आद्यको - शुभको - परित्याज्य बतलाया है । परन्तु इस प्रकारसे 'शुभं च शुद्धे त्यक्त्वा' इस तृतीय चरणकी सार्थकता नहीं रहती है - वह निरर्थक हो जाता है, क्योंकि, उस अवस्था में उसके त्यागकी प्रेरणा तो प्रथम चरण ( तत्राप्याद्यं परित्याज्यं ) में ही की जा चुकी है । अतएव यह तृतीय चरण पुनरुक्त हो जाता है । इस कारण टीकाकारका यह अर्थ और इसी अर्थको लक्ष्यमें रखकर लिखी गई उसकी उत्थानिका ( शुभादित्रयेऽपि त्यागक्रमं दर्शयन्नाह ) भी संगत नहीं प्रतीत होती । मेरी समझ से उसकी उत्थानिका इस प्रकार होना चाहिये - अथाहिते शेषत्रये त्यागक्रमं दर्शयन्नाह ।
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