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प्रस्तावना
कल्पना कर रक्खी थी (पद्मचरित्र ७, २३-३२), फिर भी उसके ऊपर किसी विष्णुके अनुग्रहका कहीं कोई प्रकरण देखने में नहीं आता । इस प्रकार उक्त श्लोककी पूरी परिस्थितीको देखते हुए वहां यथार्थ इन्द्रका ही अभिप्राय रहा है, ऐसा निश्चित प्रतीत होता है और तभी दैवकी पूरी प्रधानता एवं पुरुषार्थकी निरर्थकता भी सिद्ध होती है ।
इस श्लोकका प्रभाव पद्मनन्दिपञ्चविंशतिके निम्न श्लोक (३-३३) पर भी रहा दिखता है--
गीर्वाणा अणिमादिस्वस्थमनसः शक्ता किमत्रोच्यते ध्वस्तास्तेऽपि परं परेण स परस्तेभ्यः कियान् राक्षसः । रामाख्येन च मानुषेण निहतः प्रोल्लङ्घ्य सोऽप्यम्बुधिं रामोऽप्यन्तकगोचरः समभवत् कोऽन्यो बलीयान् विधेः ॥
यहां तो स्पष्टतया पद्मचरित्रके उक्त कथानकको आधार बनाकर यह कहा गया है कि जो देव अणिमा-महिमा आदि ऋद्धियोंसे सम्पन्न व अतिशय शक्तिशाली थे वे भी जिस परके द्वारा-दूसरेके द्वारा- नष्ट किये गये हैं वह पर रावण राक्षस था जो उन देवोंसे कुछ विशेष बलवान् नहीं था। फिर वह भी एक राम नामक मनुष्यके द्वारा समुद्रको लांघकर मारा गया है, तथा अन्तमें उस रामको भी यमका ग्रास बनना ही पडा है । ठीक है- देवसे बलवान् अन्य कोई नहीं है ।
उस इन्द्र नामक विद्याधरने अपने सैनिकों आदिकी 'देव संज्ञा रख रक्खी थी। यहां उनके लिये समानार्थक गीर्वाण शब्दका प्रयोग किया गया है तथा उन्हें अणिमा-महिमा आदिसे स्वस्थ मनवाले कहा गया है, जिसकी कि विद्याधर होनेसे सम्भावना भी की जा सकती है।
श्लोक १४९ में 'अर्थार्थ' का अर्थ 'अर्थनिमित्तम् ' तथा 'तपःस्थेषु मध्ये ' का अर्थ 'तपस्विषु मध्ये' तो किया गया है; किन्तु 'नतानामाचार्या न हि नतिरताः साधुचरिताः' जैसे क्लिष्ट वाक्यके विषयमें कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया, जिसका कि स्पष्टीकरण आवश्यक था।