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आत्मानुशासनम्
कहीं तो मूल ग्रन्थ आशयको भी स्पष्ट नहीं किया गया है । यथा -- श्लोक १२-१४ में सम्यग्दर्शनके दस भेदोंके स्वरूपका निर्देश किया गया है । उनके स्वरूपका टीकामें विशेष स्पष्टीकरण होना चाहिये था, जो नहीं किया गया है ।
इससे आगेके १५वें श्लोक ( शमबोध... ) की टीकामें भी बहुत कुछ लिखा जा सकता था, परन्तु उसके भावको भी स्पष्ट नहीं किया गया है । श्लोक २५ में या तो टीकाकार के सामने कुछ पाठभेद रहा है, या लिपिकारोंकी असावधानीसे टीकागत पद कुछ इधरके उधर हुए हैं। इससे टीकाकारका अभिप्राय स्पष्ट नहीं होता है ।
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श्लोक ३२ भर्तृहरिके नीतिशतकमें इसी रूपमें पाया जाता है। वहां मात्र ( यत्र ) के स्थानमें यस्य और ' वारण: 'के स्थानमें ' रावणः ' पाठभेद है | वहां 'रावणः का अर्थ टीकाकारने 'प्रधानहत्ती' किया है । आत्मानुशासन में इस श्लोककी टीका करते हुए प्रभाचंद्राचार्यने 'संगरे परैः भग्नः' का अर्थ 'रावणादि शत्रुओं द्वारा युद्ध में पराजित किया गया' ऐसा किया है जो संगत प्रतीत नहीं होता है । यहां इन्द्रसे अभिप्राय यथार्थ देवेंद्रका ही रहा है१, न कि इंद्र नामधारी विद्याधर मनुष्यविशेषका । अन्यथा, 'अनुग्रहः खलु हरे:' इस विशेषताकी कोई संगति नहीं बैठती । कारण कि उक्त इन्द्र नामक राजाने यद्यपि देवों आदिकी भी वैसी ही
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१. विजितास्त्रिदशा दैत्यैरिन्द्राद्याः शरणं ययुः ।
पितामहं महाभागं हुताशनपुरोगमाः ॥ वि. पु. १, ९, ३४. आसीद् धुन्धुरिति ख्यातः कश्यपस्यौरसः सुतः । दनुगर्भसमुद्भूतो महाबलपराक्रमः ॥ स समाराध्य वरदं ब्रह्माणं तपसासुरः । अवध्यत्वं सुरैः सर्वैः प्रार्थयत् स तु नारद । तद्वरं तस्य च प्रादात् तपसा पङ्कजोद्भवः । परितुष्टः स च बली निर्जगाम त्रिपिष्टपम् ॥ चतुर्थस्य कलेरादौ जित्वा देवान् सवासवान् । धुन्धुः शक्रत्वमकरोद् हिरण्यकशिपौ सति ।। तस्मिन् काले स बलवान् हिरण्यकशिपुस्ततः । चचार मन्दरगिरौ दैत्यं धुन्धुं समाश्रितः । ततोऽसुरा यथाकामं विहरन्ति त्रिपिष्टपे । ब्रह्मलोके च त्रिदशाः संस्थिता दुःखसंयुताः । वामने ७५ अध्यायः (शद्वकल्पद्रुमगत - वामन-शद्वतः )