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आत्मानुशासनम् .
श्लोक. १३३ में नारीके जघनरन्ध्रको कामदेवके आयुध (बाण) जन्य नाडीव्रणके समान निर्दिष्ट किया गया है। इस नाडीव्रणका स्वरूप आयुर्वेदमें इस प्रकार पाया जाता है-. यः शोफमाममतिपक्वमुपेक्षतेऽज्ञो यो वा व्रणं प्रचूरपूयमसाधुवृत्तः । अभ्यन्तरं प्रविशति प्रविदार्य तस्य स्थानानि पूर्वविहितानि ततः स पूयः।। तस्यातिमात्रगमनाद्गतिरिष्यते तु नाडीव यद्वहति तेन मता तु नाडी।
___ योगरत्नाकर २, पृ. ३१३. इसका अभिप्राय यह है कि जो अज्ञानी एवं असाधु आचरण करनेवाला वैद्य अतिशय पके हुए सूजनयुक्त फोडोको बच्चा समझकर उपेक्षा करता है तथा बहुत पीववाले घावकी भी उपेक्षा करता है उसकी पीव चूंकि पूर्वोक्त स्थानों (त्वचा, मांस, शिरा, स्नायु, सन्धि, हड्डी और मर्म) में अतिशय मात्रामें गति करती है- जाती हैइसलिये उसे गति माना जाता है तथा चूंकि वह नाडीके समान बहता है इसलिये उक्त व्रणको नाडी भी माना जाता है। ,
इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तर्गत उपर्युक्त स्थलोंको देखते हुए यह भली भांति सिद्ध होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता श्री गुणभद्राचार्य आयुर्वेदके भी अच्छे ज्ञाता थे और उसका प्रभाव उनके इस ग्रन्थपर भी पर्याप्त मात्रामें पड़ा है।
आत्मानुशासनके काव्यगुण किंवदन्ती है कि जब आचार्य जिनसेन स्वामीको अपने स्वर्गवासका समय निकट आता दिखा तब उन्हें अपने प्रारम्भ किये हुए महापुराणके पूर्ण होनेकी चिन्ता हुई। उस समय उन्होंने अपने योग्य दो शिष्योंको बुलाकर उनकी योग्यताको परीक्षा करते हुए उन्हें संस्कृतमें अनूदित करनेके लिये यह वाक्य दिया- सूखा वृक्ष सामने है। इसका अनुवाद एकने 'शुष्को वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे' तथा दूसरेने ‘नीरसतरुरिह विलसति पुरतः' इस रूपसे किया । दूसरा अनुवाद प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता श्री गुणभद्राचार्यका था जो सरस एवं ललित पदयुक्त होनेसे आकर्षक था। उसे