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प्रस्तावना
देखकर जिनसेंनाचार्यको यह विश्वास हो गया कि मेरा यह सुयोग्य शिष्य अपनी प्रतिभा के बलपर इस महापुराणको अवश्य पूरा करेगा । तदनुसार उन्होंने उसे पूरा किया भी है ।
उपर्युक्त लोकश्रुति में कदाचित् ऐतिहासिक दृष्टिसे सत्यांश भले ही सम्भव न हो, परन्तु इस सत्यमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है कि प्रस्तुत ग्रन्थके निर्माता गुणभद्र उच्च कोटिके प्रतिभासम्पन्न कवि थे । उनकी यह कृति आध्यात्मिक होकर भी उत्कृष्ट काव्यके अन्तर्गत है । कवि सम्प्रदाय में काव्यका लक्षण यह किया जाता है
साधुशब्दार्थसंदर्भ गुणालंकार भूषितम् । स्फुटरीति- रसोपेतं काव्यं कुर्वीत कीर्तये ॥
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रहित शब्दोंकी
अर्थात् जिस रचना में अनर्थकत्व आदि दोषसे तथा देशविरुद्धत्व आदि दोषसे रहित अर्थकी योजना की गई हो, जो औदार्य आदि गुणों एवं अनुप्रासादिरूप शब्दालंकारो और उपमा-रूपकादिस्वरूप अर्थालंकारोंसे अलंकृत हो, तथा प्रगट रीति व रसों से सुशोभित हो वह काव्य कहलाता है और वही कविकी. कमनीयकीर्तिको दिगदिगन्तमें विस्तृत करता है ।
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आ. प्र. ७
काव्यका यह लक्षण प्रकृत आत्मानुशासन में सर्वथा घटित होता है । उसमें की गई शब्द और अर्थकी योजना निर्दोष है । वह गुणोंसे भी शून्य नहीं है - वहां विविध स्थलोंमें औदार्य, प्रसत्ति एवं ओज आदि गुण भी पाये जाते हैं । इसके अतिरिक्त वह अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुतप्रशंसा, श्लेष, विभावना एवं अर्थान्तरन्यास आदि अनेक अलंकारोंसे अलंकृत एवं रीति और रससे भी संयुक्त है । तथा उसमें जहां तहां विविध प्रकारके उपर्युक्त छन्दोंका भी उपयोग उत्तम रीतिसे किया गया है । उदाहरणस्वरूप इस श्लोक को देखिये -
यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी ।