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आत्मानुशासनम्
विहित हितमिताशी क्लेशजालं समूलं
दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ।। २२५ ॥
इसमें सरस अर्थ और पदोंकी योजना की गई है, अतएव यह माधुर्य गुणसे विभूषित है । साथ ही वह यम-नियम, नितान्त शान्त अन्तरात्म, विहित-हित- मिताशी, जालं समूलं, तथा दहति निहत इत्यादि समान श्रुतिवाले अक्षरोंकी पुनरावृत्तिसे सहित होने के कारण अनुप्रासालंकारसे अलंकृत है । यह अनुप्रासालंकार तो प्रायः समस्त ग्रन्थ में ही देखा जाता है । यह उन गुणभद्रकी भद्र वाणीकी विशेषता है। इस अनुप्रासका यह दूसरा भी स्थल देखिये --
प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्रास्ताश: प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तर । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया ब्रूयाद् धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥ ५ ॥
इस श्लोक में प्रायः प्रत्येक विशेषण के प्रारम्भ में 'प्र' का प्रयोग
ast सुन्दरता के साथ किया गया है । इस शब्द कौशल्य के साथ अर्थकी विशेषता भी अतिशय ग्राह्य है १ ।
उपमालंकारका उदाहरण देखिये --
व्यापत्पर्वममं विरामविरसं मूलेऽप्यभोग्योचितं विश्वक् क्षुत्क्षतपातकुष्ठकुथिताद्युग्रामयैश्छिद्रितम् । मानुष्यं घुण भक्षितेक्षुसदृशं नाम्नैकरम्यं पुनः
निः सारं परलोकबीजमाचरात् कृत्वेह सारीकुरु ॥। ८१ ।।
यहां मनुष्य पर्यायको घुणभक्षित इक्षुकी उपमाको ऐसे श्लेषात्मक विशेषणपदोंके द्वारा पुष्ट किया गया है जो दोनों ओर घटित होते हैं२ ।
१. अनुप्रास शब्दालंकारके उदाहरणस्वरूप अन्य भी मित्र निम्न श्लोक देखे जा सकते हैं -- ५७,६१,८९,९१,१०१ आदि ।
२. उपलंकारसे विभूषित निम्न श्लोक भी द्रष्टव्य हैं—६३,७७ १२०,१२१,१२३,१२९, १७८ आदि ।