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प्रस्तावना
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घृत अथवा तेलसे शुद्ध होकर भर जाता है उसी प्रकार चिरकालीन, परिग्रहकी ममता से उत्पन्न, महान्, नरकादि गतियोंसे संयुक्त और पीडा. प्रद मोह भी परिग्रहपरित्यागसे शुद्ध होता है । यहां निर्दिष्ट किये गये जात्यादि घृतका विधान आयुर्वेद में इस प्रकार उपलब्ध होता है-जाती पत्र-पटोल- निम्बकटका दार्वी निशा सारिवामञ्जिष्ठामथ तुत्थ- सिक्थ- मधुकैर्न क्ताण्हबीजा न्वितैः । सपि.सिद्धमनेन सूक्ष्मवदना मर्माश्रिताः स्राविणो गम्भीराः १ सरुजो व्रणाः सगतिकाः शुद्धयन्ति रोहन्ति च ॥
( योगरत्नाकर (मराठी अनुवाद सहित ) २, पृ. २९२. अर्थात् जाती के पत्ते, कटु परवल, कटु नीमकी छाल, कुटकी, दारु, हलदी, सरिवन, मंजीठा, हरड, तृतीया, मैन, मुलहठी और कंजी के बीज; इन सबसे सिद्ध किये गये घृतसे सूक्ष्म मुख ( छेद ) वाले, मर्मपर उत्पन्न हुए, बहनेवाले, गहरे घाववाले, ठाकनेवाले और भीतर फैलनेवाले व्रण ( घाव ) शुद्ध होकर भर जाते हैं । इस घृतकी उपर्युक्त औषधियों में चूंकि सर्वप्रथम जातीके पत्तोंका उल्लेख किया गया है, अतएव इसे जात्यादिघृत कहा जाता है ।
इन्हीं औषधियोंमें कुछ कुष्ठ आदि अन्य औषधियोंको मिलाकर उन्हें तेल में पकानेपर नात्यादितेल बनता है जो विषव्रज, फोडा, खुजली, कण्डू, विसर्प तथा कीडेके काटने, शस्त्रप्रहार एवं जलने आदिसे उत्पन्न हुए कितने ही प्रकार के घावोंमें उपयोगी होता है २ ।
१. यह अन्तिम चरण विशेष ध्यान देने योग्य है । इसकी समानता आत्मानुशासनके उक्त इलोकसे देखिये
पुराणो ग्रहदोषोत्थो गम्भीरः सगतिः सरुक् । त्यागजात्यादिना मोह-व्रणः शुद्धयति रोहति ॥ १८३ ॥
२. जाती- निम्ब- पटोलानां नवतमालस्य पल्लवाः । सिक्थकं मधुकं कुष्टं द्वे निशे कटुरोहिणी ।। मञ्जिष्ठा पद्मकं लोध्रमभया नीलमुत्पलम् । तुत्थकं सारिवाबीजं नक्तमालस्य च क्षिपेत् ॥ एतानि समभागानि पिष्ट्वा तैलं विपाचयेत् । विषव्रणसमुत्पत्तौ स्फोटेषु च सकच्छुषु ।। कण्डू-विसर्परोगेषु कीटदष्टेषु सर्वथा । सद्यः शस्त्रप्रहातेषु दग्ध - विद्ध-क्षतेषु च ॥ नख दन्तक्षते देहे दुष्टमांसावघर्षणे । क्षणार्थमिदं दैलं हितं शोधन-रोपणम् ॥ योगरत्नाकर २, पृ. ३०१.