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आत्मानुशासनम्
[श्लो० १००
अजाकृपाणीयमनुष्ठितं त्वया विकल्पमुग्धेन भवादितः पुरा । यदत्र किंचित्सुखरूपमाप्यते तदार्य विद्धयन्धकवर्तकीयम् ॥१०॥
अजाकृपाणीयमित्याह (दि)। अना च कृपाणश्च तयोरित्र कार्यम् अजाकृपाणीयम्यथा अजा केनचिद्धन्तुं नीता, शस्त्रेण च विना सा हन्तुं न शक्यते । तत्र प्रस्तावे अजया पादेन भूमि खनन्त्या आत्मवधाय खड्ग उत्खातः । तद्वत्त्वया विकल्पविमुग्धेन हेयोपादेयसंकल्पशून्येन आत्मवधाय कार्यमनुष्ठितम् । भवादितः पुरा-इतः सम्यग्दर्शनादिलाभयुक्तात् भवात् पूर्वम् । अत्र संसारे। सुखरूप सुखस्वनावम् । अन्धकवर्तकीयं अन्धकश्च वर्तका च तयोरिव कार्य अन्धकवर्तकीयम्-यथा अन्धकेन हस्तं प्रक्षिपता देवाद्वर्तकी प्राप्यते तथा संसारे चेष्टमानेन जीवेन सुखरूप स्थितं सुखसंपादक वस्तु ।। १०० ।। सुखाभिलाषिणः च काम एतत्करोतीत्याह--
है, क्योंकि जन्मका कष्ट तुझे अनुभवनें आ ही चुका है ॥ ९९ ॥ हे आर्य ! तूने इस (सम्यग्दशनयुक्त) भवसे पहिले संसारमें हेय और उपादेयके विचारमें मूढ होकर अजाकृपाणीयके समान कार्य किया है । यहां जो कुछ सुखरूप सामग्री प्राप्त होता है वह उन्धाक-वर्तकोय न्यायसे ही प्राप्त होती है ॥ विशेषार्थ-प्राणीको जब तक सम्यग्दर्शनका लाभ नहीं होता है तब तक उसे अनेक दुख सहने पड़ते हैं । कारण यह है कि सम्यग्दर्शनके विना उसे यह त्याज्य है और यह ग्राह्य है, इस प्रकारका विवेक नहीं हो पाता है । इसीलिये वह ऐसे भी अनेकों कार्योंको स्वयं करता है कि जिनसे मारनेके लिए ले जायी गई बकरीके समान वह अपने आप ही विपत्तिमें पडता है। जैसे-कोई एक व्यक्ति मारनेके लिये बकरीको ले गया, किन्तु उसके मारनेके लिये उसके पास कृपाण (तलवार या छुरी) नहीं था। इस बीच उस बकरीने पैरसे जमीनको खोदना प्रारंभ किया और इसके घातकको वहां भूमिमें खड्ग प्राप्त हो गया जिससे कि उसने उसका वध कर डाला । इसीको 'अजा-कृपाणीय' न्याय कहा जाता है । इसी प्रकार सम्यग्दर्शनके विना यह प्राणो भी अपने लिये ही कष्टकारक उपायोंको करता रहता है । उसे जो अल्प समयके लिये कुछ अभीष्ट सामग्नी भी प्राप्त होती है वह ऐसे प्राप्त होती