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भोगाभिलाषिणा स्वर्गाय यतितव्यम् १५३ तृष्णा भोगेषु चेद्भिक्षो सहस्वाल्पं स्वरेव ते ।
प्रतीक्ष्य पाकं कि पीत्वा पेयं भुक्ति विनाशयः ॥ १६१॥ विषयाः सन्ति तद्दर्शयन्नाह- तृष्णेत्यादि । सहस्त्र प्रतीक्षस्व । अल्पं स्तोकं व्रतानुष्ठानकालं यावत् । स्वरेव स्वर्ग एव । ते भोगाः ॥ १६१।। कर्मणा
प्राप्तिके साधनभूत शरीरको स्थिर रखनेके लिये उक्त कर्मके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले भोजनको ग्रहण तो करते हैं, किन्तु उसे स्वाभिमानपूर्वक लज्जाके साथ ही ग्रहण करते हैं, न कि निर्लज्ज व दीन बनकर । इस प्रकारसे अन्तमें वे अपनी उस स्वाभाविक सम्पत्ति (अनन्तचतुष्टय) को अवश्य प्राप्त कर लेते हैं ॥ १६० ॥ हे साधो! यदि तुझे भोगोंके विषयमें अभिलाषा है तो तू कुछ समयके लिये व्रतादिके आचरणसे होनेवाले थोडे-से कष्टको सहन कर । ऐसा करनेसे तुझे स्वर्ग प्राप्त होगा, वे भोग वहांपर ही हैं । तू पाकको प्रतीक्षा करता हुआ पानी आदिको पी करके क्यों भोजनको नष्ट करता है ? ॥विशेषार्थ-- जो साधु बाह्य विषयभोगोंकी अभिलाषा करता है उसको लक्ष्यमें रखकर यहां यह कहा गया है कि यदि तुझे विषयभोगोंकी ही अभिलाषा है तो तू कुछ समयके लिये व्रतादिके आचरणसे जो थोडा-सा कष्ट होनेवाला है उसे स्थिरतासे सहन कर । कारण यह कि ऐसा करनेसे तुझे तेरी ही इच्छाके अनुसार स्वर्ग में उन विषयभोगों की प्राप्ति हो जावेगी। फिर तू सागरोपम कालतक उस विषयसुखका अनुभव करते रहना। और यदि तू ऐसा नहीं करता है तो फिर तेरी ऐसी अवस्था होगी जैसी कि अवस्था उस मनुष्यको होती है जो कि थोडे-से काल के लिये. भोजनके परिपाक की प्रतीक्षा न करके भूखसे पीडित होता हुआ पानी आदिको पी करके ही उस भखको नष्ट करके भोजनके आनन्दको भी नष्ट कर देता है । अभिप्राय यह है कि जो विषयतृष्णाके वशीभूत होकर व्रतादिके आचरणको छोड़ देता है उसे मोक्षसुख मिलना तो दूर ही रहा, किन्तु वह विशिष्ट विषयसुख भी उसे प्राप्त नहीं होता जो कि स्वर्गादिमें जाकर प्राप्त किया जा सकता था ॥ १६१॥ जिन साधुओंके निर्धनता (उत्तम आकिंचन्य)