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आत्मानुशासनम्
[ श्लो० १६०
देन्यात्तद्विहितैस्त्वमिन्द्रियसुखः संतृप्यसे निस्त्रपः स त्वं यश्चिरयातनाकदशनैर्बद्धस्थितस्तुष्यसि । ॥ १६०॥
प्रार्थनावशात् । तद्विहितैः कर्म वृतैः । चिरयातनाकदशनैः चिरं बहुतरं कालं पूर्वयातनाम् उपवासादिकदर्थनां कारयित्वा पश्चात् कदशनानि अलवण--- कोद्रव - काञ्जिकादीनि a: बद्धस्थित: गुप्तो बन्धने स्थितः ॥ १६० ।। अस्तु चेन्द्रियसुखाभिलाषः तथापि यत्र विशिष्टा इन्द्रियनिर्मित तुच्छ इन्द्रियसुखों ( आहारादिजनित ) से सन्तुष्ट होते हैं । इसमें वे अपनी दीनताको प्रगट करते हुए लज्जित भी नहीं होते हैं । ऐसे इन्द्रियलोलुपी जीव उपवास आदिके कष्टको सहकर जैसा कुछ रूखासूखा भोजन प्राप्त होता है उसमें सन्तुष्ट होते हैं । यदि वे अपनी स्वाभाविक आत्मशक्तिका अनुभव करें तो ऐसे दीनतापूर्ण आचरण में उन्हें संतोष के स्थान में लज्जाका हीं अनुभव होगा। उदाहरणार्थ यदि कोई बलवान् मनुष्य किसी अन्य व्यक्तिको सम्पत्ति आदिका अपहरण करके उसको अपने आधीन रखता हुआ अपनी ही इच्छासे भोजन आदि देता है तो आधीनस्थ मनुष्य यदि कायर है तब तो वह अपना सर्वस्व खो करके भी उसके द्वारा कुछ भी रूखा-सूखा भोजन आदि दिया जा रहा है उसपर सन्तुष्ट होता है और किसी प्रकारको लज्जाका अनुभव नहीं करता है । किन्तु जिसे अपनी शक्तिका अभिमान है वह अन्य के द्वारा दिये जानेवाले भोजन आदिके लिये लज्जित होता है तथा उस अवसरकी खोज में रहता है कि जब कि उस अपने शत्रुको नष्ट करके अपनी हरी गई सम्पत्तिको वापिस प्राप्त कर ले। ठीक इसी प्रकारसे जो अविवेकी प्राणी हैं वे कर्मरूप शत्रुके द्वारा जो अपनी स्वाभाविक सम्पत्ति ( अनन्त ज्ञानादि ) हरी गई है उसे प्रात करनेका उद्योग नहीं करते, बल्कि उक्त कर्मके द्वारा दिये जानेवाले तुच्छ एवं क्षणिक इन्द्रिय सुखमें ही सन्तुष्ट होते हैं । किन्तु जो विवेकी जीव हैं वे उस कर्म -- शत्रु के द्वारा लुप्त की गई अपनी उस स्वाभाविक सम्पत्तिको प्राप्त करनेका निरंतर उद्योग करते हैं और वह जब तक उन्हें प्राप्त नहीं होती है तबतक उसकी
| मुस्थितिस्तुष्यसि ।