________________
- १६० ]
- कर्मकृता हानिः
आमृष्टं सहजं तव त्रिजगतोबोधाधिपत्यं तथा सौख्यं चात्मसमुद्भवं विनिहतं । निर्मूलतः कर्मणा । कृतमित्याह - आमृष्टमित्यादि । आमृष्टं लुप्तम्। विनिहतं स्फेटितम् । निर्मूलतः निःसैषतः सत्कारणभूतात्मविशुद्धिविशेषेण सह इत्यर्थः । दैन्यात् चारित्रमोहोदयप्रभवविषय
१५१
1
करता है कि इसने उत्तम आहार दिया है, तथा अन्य दाताकी निन्दा करता है कि इसने निष्कृष्ट आहार दिया है, वह भी जो इस प्रकार से राग व द्वेष के वशीभूत होता है उसका कारण इस कलिकाल के प्रभाव को ही समझना चाहिये । अन्यथा पूर्व में जहां दाता यह समझता था कि सत्पात्रको दान देना यह गृहस्थका आवश्यक कर्तव्य है तथा इस गृहस्थ जीवनकी सफलता भी इसी में है, वह सुअवसर मुझे पुण्योदय से ही प्राप्त हुआ है आदि; वहां वे सत्पात्र (साधु) भी दाताके द्वारा जैसा कुछ भी रूखा-सूखा भोजन प्राप्त होता था उसीमें संतुष्ट होते थे-दाताके प्रति कभी भी राग-द्वेष नहीं करते थे । वे दाता और पात्र आज नहीं उपलब्ध होते हैं । इससे यही निश्चय होता है कि दाता और पात्रोंकी जो वर्तमानमें यह दुरवस्था हो रही है वह कलिकालके ही प्रभावसे हो रही है ।। १५९।। हे आत्मन् ! तीनों लोकोंको विषय करनेवाले ज्ञान (केवलज्ञान) के ऊपर तेरा जो स्वाभाविक स्वामित्व था उसे इस कर्मने लुप्त कर दिया है तथा पर पदार्थों की अपेक्षा न करके केवल आत्मा मात्रसे उत्पन्न होनेवाले तेरे उस स्वाभाविक सुखको भी उक्त कर्मने पूर्णरूपसे नष्ट कर दिया है । जो तू चिरकालसे उपवासादिके कष्टपूर्वक कुत्सित भोजनों (नीरस एवं नमकसे हीन आदि) के बन्धनमें स्थित रहा है वही तू निर्लज्ज होकर उस कर्मके द्वारा किये गये इन्द्रियसुखों ( विषयसुखों) से दीनतापूर्वक संतुष्ट होता है ।। विशेषार्थं जीव स्वभाव से अनन्तज्ञान एवं अनन्त सुखसे संपन्न है । किन्तु कर्मका आवरण रहनेसे वह प्रगट नहीं है-- लुप्त हो रहा है । जो प्राणी अज्ञानतासे अपनी अनन्त शक्तिका अनुभव नहीं करते हैं वे ही उस कर्मके द्वारा
1 ज विनिहितं ।