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आत्मानुशासनम्
. [ श्लो० १५९
वातारो गृहचारिणः किल धनं देयं तदत्राशनं गृहन्तः स्वशरीरतोऽपि विरताः सर्वोपकारेच्छया । लज्जव मनस्विनां नन पुनः कृत्वा कथं तत्फलं रामद्वेषवशीभवन्ति तदिदं चक्रेश्वरत्वं कलेः ॥१५९॥
च्छया गृण्हन्ति । लज्जैव- एषा सर्वोपकारमङगीकृत्य अशनग्रहणेच्छा लज्जैव । मनस्विनां पण्डितानो मानिनां वा । तत्फलं तत् अशनमात्रं च फलं निमित्तं कृत्वा । दाता हि तं निमित्तं कृत्वा अहमेवोत्कृष्टो दाता, अन्ये तु निकृष्टा: इत्यादि प्रकारं रामद्वेषादिकं करोति । यतिः पुनः अनेन उत्कृष्टम् अशनं दत्तम् अनेन निकृष्टम् इत्यादिरूपतयेति । चक्रेश्वरत्वं प्रभुत्वम् ॥१५९॥ रागद्वेषाधीनता च कर्मणा क्रियते, तेन च कर्ममा भवत: कि
हैं और वह देय धन (देने योग्य धन) यहां पात्रके लिये भक्तिपूर्वक दिया जानेवाला भोजन है । सबके उपकारको इच्छासे जो उस आहाररूप धनको ग्रहण करनेवाले साधु हैं वे अपने शरीरसे भी विरत (निःस्पृह) होते हैं । यह आहारग्रहणकी इच्छा भी उन स्वाभिमानियोंके लिये लज्जाका ही कारण होती है। फिर भला उस आहारको निमित्त बना करके वे (साधु और दाता) राग-द्वेषके वशीभूत कैसे होते हैं ? वह इस पंचम कालका ही प्रभाव है । विशेषार्थ-दानके निमित्त तीन हैं-दाता, पात्र और देय । सो यहां दाता तो गृहस्थ, पात्र मुनि और देय धन आहार मात्र है । जो मनि उस आहारको ग्रहण करते हैं वे भी केवल इस विचारसे करते हैं कि इससे शरीर स्थिर रहेगा, जिससे कि हम तपश्चरण आदि करके आत्महितके साथ ही सदुपदेशादिके द्वारा दूसरोंका भी हित कर सकेंगे। इतनेपर भी जो स्वाभिमानी विद्वान् हैं वे उस आहार मात्रके ग्रहण करने में भी लज्जित होते हैं। यह है सत्पात्र और निरभिमानी सद्गृहस्थ दाताओंको स्थिति । इसके विपरीत जो दाता उस आहारदानके निमित्तसे यह समझता है कि मैं ही उत्कृष्ट दाता हूं, अन्य दाता निकृष्ट हैं, तथा मैं इन साधुओंपर उपकार कर रहा हूं; वह दाता निन्दनीय है। इसी प्रकार जो साधु भी उस आहारके निमित्तसे किसी दाताकी प्रशंसा