________________
-१९३]
बहिरात्मादीनां स्वरूपम् आत्मन्नात्मविलोपनात्मचरितैरासीर्दुरात्मा चिरं स्वात्मा स्याः सकलात्मनीनचरितैरात्मीकृतरात्मनः ।
दुरात्मा बहिरात्मा चिरम् । कैः कृत्वा । आत्मविलोपनात्मचरितः आत्मा विशेषेण लोप्यते निजस्वरूपात्प्रच्याव्यते तानि च तानि आत्मचरितानि, आत्मचरितानि च विषयादिप्रवृत्तयः तैः । स्वात्मा स्या: शोभन आत्मा अन्तरात्मा स्याः भवे त्वम् । कैः कृत्वा । सकलात्मनीनचरितः आत्मने हितानि आत्मनीनानि, तानि च तानि सकलानि च तानि आत्मचरितानि च तैः । आत्मीकृतः । कस्य संबन्धिभिः तैः । आत्मनः स्वस्य । आत्मेत्यां आत्मना प्राप्याम् । प्रतिपतन् गच्छन् । प्रत्यात्मविद्यात्मक: केवलज्ञानरूपः । स्वात्मोत्थात्म
परमात्मा अवस्थाको प्राप्त हो करके केवलज्ञानस्वरूपसे संयुक्त,विषयादिकी अपेक्षा न करके केवल अपनी आत्माके आश्रयसे ही उत्पन्न हुए आत्मीक सुखका अनुभव करनेवाला और अपनी आत्माद्वारा प्राप्त किये गये निज स्वरूपसे सुशोभित होकर सुखी हो सकता है। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि यह प्राणी अनादि कालसे बहिरात्मा- आत्म-अनात्मके विवेकसे रहित- रहा है। इसीलिये उस समय उसका समस्त आचरण आत्मस्वरूपका घातक- हेय-उपादेयके विचारसे रहित-होकर राग-द्वेषादिसे परिपूर्ण रहा है। जब इसको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है तब उसके आत्मपरका विवेक उत्पन्न हो जाता है। इसीलिये उसके आचरणमें भी परिवर्तन हो जाता है। तब वह ऐसी ही क्रियाओंको करता है जिनसे कि आत्माका हित होनेवाला है । यद्यपि चारित्रमोहनीयका उदय विद्यमान रहनेसे वह जब तब विषयोपभोगमें भी प्रवृत्त होता है, फिर भी वह उसे हेय ही समझता है-- उपादेय नहीं समझता और न आसक्तिके साथ भी वह उन विषयोंमें प्रवृत्त होता है । तब उसकी अन्तरात्मा संज्ञा हो जाती है । यही अन्तरात्मा जब संसारके कारणभूत विषयोंसे पूर्णतया विरक्त होकर तप-संयमको स्वीकार करता है तब वह उनके द्वारा संवर और निर्जराको प्राप्त होता हुआ चार घातिया कर्मोका क्षय करके आर्हन्त्य
1.ज ‘बहिरात्मा' नास्ति । -- -.. आ. १२ अ