________________
१८४
[ श्लो० १९२
आत्मानुशासनम्
अहित विहितप्रीतिः प्रीतं कलत्रमपि स्वयं सकृदपकृतं श्रुत्वा सद्यो जहाति जनोऽप्ययम् । स्वहितनिरतः साक्षाद्दोषं समीक्ष्य भवे भवे विषयविषवद्यासाभ्यासं कथं कुरुते बुधः ॥ १९२॥
1
विषयाश्च भवतो भूयोऽपकारं कृतवन्तोऽतः कथं तत्राभिलाषो युक्त इत्याह- अहितेत्यादि । अयम् अपि अहितविहितप्रीतिः जनः । सद्यः स्वयं जह्यति । किं तत् कलत्रम् । कथंभूतम् । प्रीतमपि वल्लभमपि । किं कृत्वा । अपकृतं श्रुत्वा कृतापराधम् आकर्ण्य । कथम् । सकृत् एकवारम् । भवान् पुनः बुधः स्वहितनिरतः भवे भवे विषयाणां साक्षाद्दोषं समीक्ष्य विषया एक विषवद्यासस्तस्याभ्यासं पुनः पुनः सेवां कथं कुरुते ।। १९२ ।। यदा च तदभ्यास कुरुते भवांस्तदा कीदृशोऽन्यदा च कीदृशः इत्याह-- आत्मन्नित्यादि । हे आत्मन् । आसीस्त्वं
कारक विषयोंमें अनुराग करनेवाला यह अज्ञानी मनुष्य भी यदि एक बार भी दुराचरणको सुनता है तो वह अतिशय प्यारी स्त्रीको भी शीघ्र छोड देता है । फिर हे भव्य ! तू विद्वान् एवं आत्महित में लीन हो करके प्रत्यक्षमें अनेक भवोंमें विषयोंके दोषको देखता हुआ भी उन विषयोंरूप विषमिश्रित ग्रासका वार वार कैसे सेवन करता है ? ॥ विशेषार्थ - जो मनुष्य हिताहित विवेकसे रहित होकर विषयोंमें अनुरक्त रहता है वह भी यदि कभी अपनी प्यारी स्त्रीके विषय में कुछ दुराचरण आदिको सुनता है तो उस स्त्रीका परित्याग कर देता है । परन्तु आश्चर्य है कि जो विद्वान् आत्महितमें तत्पर है तथा जिसने एक भवमें ही नहीं, बल्कि अनेक भवोंमे विषयोंसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंका प्रत्यक्षमें अनुभव भी कर लिया है; वह विषके समान अनिष्ट उन विषयोंको नहीं छोड़ता है । इससे अधिक लज्जाकी बात भला और क्या हो सकती है ॥ १९२॥ हे आत्मन् ! तू आत्मस्वरूपको नष्ट करनेवाले अपने आचरणोंके द्वारा चिर 'कालसे दुरात्मा अर्थात् बहिरात्मा रहा है अब तू आत्माका हित करनेबाले ऐसे अपने समस्त आचरणोंको अपनाकर उनके द्वारा उत्तम आत्मा अर्थात् अन्तरात्मा हो जा । इससे तू अपने आपके द्वारा प्राप्त करने योग्य