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विषयाभिलाषो महदनर्थकरः १८३ दृष्ट्वा जनं व्रजसि किं विषयाभिलाषं स्वल्पोऽप्यसौ तव महज्जनयत्यनर्थम् । स्तेहाद्युपकमजुषो हि यथातुरस्य
दोषो निषिद्धचरणं न तथेतरस्य ॥१९१॥ मनु सशृङगारलोकावलोकनाद्विषयाभिलाषोत्सत्तेः कयं कषायादिविजय: स्यादि. स्याह--- दृष्ट्वेत्यादि । असौ विषयाभिलाषः । महदिति क्रियाविशेषणम् । स्नेहाद्युपक्रमजुषः स्नेहादेः अनुवासादेर्दधिदुग्धघृतादेर्वा । उपक्रमस्य आरम्भस्य । जुषः प्रीत्या सेवकस्य । निषिद्धाचरणं निषिद्धानुष्ठानम् । इतरस्य यथेष्टवृत्तस्य ॥ १९१ ॥ अपकारके च वस्तुनि प्राणिमात्रस्णपि द्वेषो2 भवति स्वयं विषयकी अभिलाषाको क्यों प्राप्त होता है ? कारग कि थोडी-सी भी वह विषयाभिलाषा तेरे अधिक अनर्थ (अहित) को उत्पन्न करती है । ठीक ही है-जिस प्रकार कि तेल आदि स्निग्ध पदार्थों का सेवन करनेवाले रोगी मनुष्यके लिये दोष जनक होने से उनका सेवन करना निषिद्ध नहीं है उस प्रकार वह दूसरेके लिये नहीं है । विशेषार्थ- जो विषयोंसे विरक्त होकर तपमें प्रवृत्त हुआ है वह यदि स्त्रीजन आदिको देखकर फिरसे विषयको इच्छा करता है तो इससे उसका बहुत अधिक अहित होनेवाला है । जैसे कि कोई रोगी यदि तेल-घी आदि अपथ्य वस्तुओंका सेवन करता है तो इससे उसका रोग अधिक ही बढता है और तब वह इसने भी अधिक कष्टमें पडता है । परन्तु जो स्वस्थ है उसके लिये उन घी-तेल आदि पदार्थोंका सेवन निषिद्ध नहीं है । कारण कि वह उनको पचा सकता है । इसी प्रकार यदि कोई गहस्य स्त्री आदिको देखकर विषयसुखकी इच्छा करता है तो इससे उसका कुछ विशेष अहित होनेवाला नही है । कारण यह कि बह गृहस्थ अवस्थामें स्थित है-अभी वह उनका परित्याय नहीं कर सका है। परन्तु जो साधु अवस्था में स्थित है और जो उनका परित्याय कर चुका है वह यदि फिरसे उनमें अनुरक्त होता है तो यह उसके लिये लज्जाजनक तो है ही, साथ ही इससे उसकी परलोकमें भी बहुत अधिक हानि होनेवाली है ।।१९१॥ अहित
1.प यथेष्टाप्रवृत्तस्य। 2 ज स दोषो।