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आत्मानुशासनम् ........ - [श्लो० १८९
छिनत्सि सुतपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः कथं समुपलप्स्यसे सुरसमस्य पक्वं फलम् ॥१८९॥ तथा श्रुतमधीष्व शश्वदिह लोकपंक्ति विना शरीरमपि शोषय प्रथितकायसंक्लेशनैः । कषायविषयद्विषो विजयसे यथा दुर्जयान् शमं हि फलमामनन्ति मुनयस्तफःशास्त्रयोः ॥१९०॥
दुर्धरतपोऽनुष्ठायिनो मुनेः शिक्षा प्रयच्छन्नधीत्येत्यादिश्लोकद्वयमाह- अधीत्येत्यादि । उपास्य आराध्य । घोरं दुष्करम् । तयोः तपःश्रुतयोः । प्रसवं पुष्पम् । कथम् । न कथमपि । अस्य प्रसवस्य ।। १८९ ॥ तथेत्यादि । पङ्क्ति व्यवहारं वञ्चना वा । प्रथितानि प्रसिद्धानि । कषायविषयद्विषः कषायाश्च विषयाश्च त एव द्विषः शत्रवः । शमं रागाद्युपशमम् । आमनन्ति प्रतिपादयन्ति ।। १९० ।। आदिमें ही सन्तुष्ट हो जाता है तो उसको उस तपका जो यथार्थ फल स्वर्ग-मोक्षका लाभ था वह कदापि नहीं प्राप्त हो सकता है । अतएव तपरूप वृक्षके रक्षण एवं संवर्धनका परिश्रम उसका व्यर्थ हो जाता है। अभिप्राय यह हुआ कि यदि तपसे ऋद्धि आदिको प्राप्तिरूप लौकिक लाभ होता है तो इससे साधुको न तो उसमें अनुरक्त होना चाहिये और न किसी प्रकारका अभिमान भी करना चाहिये । इस प्रकारसे उसे उसके वास्तविक फलस्वरूप उत्तम मोक्षसुखकी प्राप्ति अवश्य होगी ॥१८९॥ हे भव्यजीव ! तू लोकपंक्तिके विना अर्थात् प्रतिष्ठा आदिकों अपेक्षा न करके निष्कपटरूपसे यहां इस प्रकारसे निरन्तर शास्त्रका अध्ययन कर तथा प्रसिद्ध कायक्लेशादि तपोंके द्वारा शरीरको भी इस प्रकारसे सुखा कि जिससे तू दुर्जय कषाय एवं विषयरूप शत्रुओंको जीत सके । कारण कि मुनिजन राग-द्वेषादिकी शान्तिको ही तप और शास्त्राभ्यासका फल बतलाते हैं ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय इतना ही है कि प्राप्त हुए विशिष्ट आगमज्ञान एवं तपके निमित्तसे किसी प्रकारके अभिमान भादिको न प्राप्त होकर जो राग-द्वेष एवं विषयवांछा आदि परमार्थ सुखकी प्राप्तिमें बाधक हैं उन्हें ही नष्ट करना चाहिये। यही उस आगमज्ञान एवं तपका फल है ॥१९०॥ हे भव्य ! तू विषयी जनको देखकर