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तपःश्रुतयोः फलं न लाभपूजादिकम्
अधीत्य सकलं श्रुतं चिरमुपास्य घोरं तपो यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम्
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भृत्यन्तरशब्देनोच्यते, तस्य प्राप्तिः । तस्मिन् मृत्यन्तरे । पाश्चात्ये पश्चोत्रे ५। १८८।। अभेदानीं सर्वसंगत्यागिनो मृत्यूत्पस्षोः समानचेतसः सर्वशास्त्रविदः
अर्थात् जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग भी अवश्यंभावी है । अन्यकी तो बात ही क्या है, किन्तु प्राणी सब कुछ यहींपर छोडेकर इस शरीर से भी अकेला ही निकलकर जाता है । क्ष. चू. १-६० अभिप्राय यह है कि प्राणीकी मृत्यु और जन्म ये दोनों परस्पर अविनाभावी हैं । अतएव विवेकी जीवको न तो जम्म में हर्षित होना चाहिये और न मरणसे दुखी भी । अन्यथा वह इस भवमें तो दुखी है ही, साथ ही इस प्रकार से आसातावेदनीय आदिका बन्ध करके परभवमें भी दुखी ही रहनेवाला है | ॥ १८८ ।। समस्त आगमका अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि उन दोनों का फल तू यहां सम्पत्ति आदिका लाभ और प्रतिष्ठा आदि चाहता है तो समझना चाहिये कि तू विवेकहीन होकर उस उत्कृष्ट तपरूप वृक्ष के फूलको ही नष्ट करता है । फिर ऐसी अवस्था में तू उसके सुन्दर व सुस्वादु पके हुए रसीलें फलको कैसे प्राप्त कर सकेगा ? नहीं कर सकेगा ॥ विशेषार्थ - जिसे प्रकार कोई मनुष्य वृक्षको लगाता है, जलसिंचन आदिसे उसे बढाता है, और आपत्तियोंसे उसका रक्षण भी करता है । परन्तु समयानुसार जब उसमें फूल आते हैं तब वह उन्हें तोड लेता है और इसीमें संतोषका अनुभव करता है । इस प्रकारसे वह मनुष्य भविष्य में आनेवाले उसके फलोंसे वंचित ही रहता है। कारण यह कि फलों की उत्पत्तिके कारण तो वे फूल ही थे जिन्हें कि उसने लोडकर नष्ट कर दिया है। ठीक इसी प्रकारसे जो प्राणी आगमका अभ्यास करता है और घोर तपश्चरण भी करता है परंतु यदि वह उनके फलस्वरूप प्राप्त हुई ऋद्धियों एवं पूजा-प्रतिष्ठा
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