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गृहाश्रमस्वरूपम्
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तस्मादेष तदन्धरज्जवलनं स्नानं गजस्याथवा मत्तोन्मत्तविवेष्टितं न हि हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥४१॥
अथवा मतोन्मतविवेष्टितन्- मतो मद्याभिभूत: उन्मतो धत्तूर-कोद्रवादिजनितमदो मदरहितो वा तयोश्वेष्टितम् अनुष्ठानं येषां सुन्दरमसुन्दरं च भवति । तथा गेहाश्रम । यत एवं ततः न हि हित:-- हि स्फुटं न हितः शाश्वतलक्ष्मीसाधकत्वेनोपकारक: गेहाश्रनो गृहस्वावस्या ॥४१॥ तथा गेहाश्रने कृष्यादिव्यापाराणां सुखस्य असावकत्वं दर्शयन्नाह--
(पुण्य-पाप) रूप करता है। इसलिये यह गृहत्या त्रन अन्धेके रस्सी भांजने के समान, अथवा हायो के स्नानके समान अथवा शराबी या पागलको प्रवृत्ति के समान सर्वथा हितकारक नहीं है । विशेधार्य- अन्धा मनुष्य आगे आगे रस्सोको भांजता है, परन्तु वह पीछेसे उकलती जाती है, अतएव जिस प्रकार उसका वह रस्सी भांजना व्यर्थ है; अथवा हाथी पहिले स्नान करता है और तसश्वात् वह पुनः अंगपर धूलि डाल लेता है, इसलिये जिस प्रकार उक्त हाथोका स्नान करना व्यर्थ है; अथवा शराबी या पागल मनुष्य कभी उतन और कभी निकृष्ट चेष्टा करता है, परन्तु वह विवेकशून्य होनेसे जिस प्रकार हितकारक नहीं है; उसो प्रकार यह गृहस्थापन भी हितकारक नहीं है । कारग यह कि उक्त गृहस्थाश्रममें रहता हुआ मनुष्य जहां जिनपूजा, स्वाध्याय एवं दानादिरूप शुभ कार्योंको करता है वहां वह अर्थोपार्जनके लिये हिंसाजनक आरम्भ एवं विषयसेवनादिरूप पापाचरग भी करता ही है । अतएव अन्धेके रस्सो भांजने आदिके समान वह गहस्थाश्रम कभी कल्याणकारी नहीं हो सकता है । जीवका सच्चा कल्याण उक्त गृहस्थाश्रमको छोड करके निर्ग्रन्थ अवस्थाको प्राप्तिमें ही सम्भव है ॥ ४१॥ तुम यहां सुखको प्राप्त करनेको आशासे भूमिको जोतकर और बीज बो करके अर्थात् खेती करके, राजाओंकी सेवा करके अर्थात् दासकर्म करके, तथा बहुत बार वनमें और समुद्रमें परिभ्रमण करके अर्थात् व्यापार करके बहुत कालसे क्यों कष्ट सह