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-२२८] संयमसाधनेषु मोहो न कर्तव्यः
रम्येषु वस्तुवनितादिषु वोतमोहो । मुझे वृथा किमिति संयमसाधनेषु । धीमान किमामयभयात्परिहत्य भुक्ति
पीत्वौषधि व्रजति जातुचिदप्यजीर्णम् ॥२२८॥ विषयेषु विगतव्यामोहेन च भवता कमण्डलुपिच्छिकाद्युपकरेणष्वपि व्यामोहो न कर्तव्य इति शिक्षा प्रयच्छन्नाह-रम्येष्वित्यादि। वीतमोहः विनष्टमोहः । मुहयेत् मोहं गच्छेत् । संयमसाधनेषु पिच्छिकाचुपकरणेषु । आमयेत्यादि । यो हि व्याधिभयाद भुक्ति परिहरति स किं व्याधिप्रतीकारार्थ तथा मात्राधिकम् औषधम् । जातुचित् कदाचिदपि पिबति येन अजीर्णं भवति ।।२२८॥ सर्वत्र विमतमोहोऽपि मुनिरित्वं प्रेरणा की गई है कि तू सदा सावधान रहकर अपने रत्नत्रयकी रक्षा कर ॥२२७॥ हे भव्य! जब तू रमणीय बाह्य अचेतन वस्तुओं एवं चेतन स्त्री-पुत्रादिके विषयमें मोहसे रहित हो चुका है तब फिर संयमके साधनभूत पीछी-कमण्डल आदिके विषयमें क्यों व्यर्थमें मोहको प्राप्त होता है ? क्या कोई बुद्धिमान् रोगके भयसे भोजनका परित्याग करता हुआ औषधिको पीकर कभी अजीर्णको प्राप्त होता है? अर्थात् नहीं प्राप्त होता है । विशेषार्थ-- जो बुद्धिमान् मनुष्य रोगके भयसे भोजनका परित्याग करता है वह कभी औषधिको अधिक मात्रामें पीकर उसी रोगको निमंत्रण नहीं देता है । और यदि वह ऐसा करता है तो फिर वह बुद्धिमान् न कहला कर मूर्ख ही कहा जावेगा। इसी प्रकार जो बुद्धिमान् मनुष्य चेतन (स्त्री-पुत्रादि) और अचेतन (धन-धान्यादि) पदार्थोसे मोहको छोडकर महाव्रतोंको स्वीकार करता है वह कभी संयमके उपकरणस्वरूप पीछी एवं कमण्डलु आदिके विषयमें अनुरागको नहीं प्राप्त होता है। और यदि वह ऐसा करता है तो समझना चाहिये कि वह अतिशय अज्ञानी है। कारण कि इस प्रकारसे उसका परिग्रहको छोडकर मुनिधर्मको ग्रहण करना व्यर्थ ठहरता है। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि हे साधो! जब तू स्त्री आदि समस्त बाह्य वस्तुओंसे अनुराग छोड चुका है तो फिर पीछी कमण्डलु आदिके विषयमें भी व्यर्थमें अनुराग न कर । अन्यथा तू इस लोकके सुखसे तो रहित हो ही चुका है, साथ ही वैसा करनेसे परलोकके भी सुखसे वंचित हो जावेगा ॥ २२८ ॥ बाहिर उत्पन्न