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मात्मानुशासनम्
[श्लो० २२७
दासत्वं विषयप्रमोर्गतवतामात्मापि येषां परस्तेषां भो गुणदोषशून्यमनसां किं तत्पुनर्नश्यति । भेतव्यं भवतव यस्य भुवनप्रद्योति रत्नत्रयं
भ्राम्यन्तीन्द्रियतस्कराश्च परितस्त्वां तन्मुहुर्जागृहि ॥२२७॥ रत्नत्रयवता तद्विलोपे भयं कर्तव्यम् ,(न) पुनविषयासक्तजनवत्तत्र निर्भयेन भवितव्यमित्याह-- दासत्वमित्यादि। परः पराधीनः । परितस्त्वां तव समन्तात् । मुहुजागृहि इन्द्रियचौरैर्यथा नाभिभूयसे तया पुनः पुनर्दत्तावधानो भव ।। २२७ ।।
आत्मा भी पर(पराधीन)है ऐसे उन गुण-दोषके विचारसे रहित मनवाले प्राणियोंका भला वह क्या नष्ट होता है ? अर्थात् उनका कुछ भी नष्ट नहीं होता है। परन्तु हे साधो ! चूंकि तेरे पास लोकको प्रकाशित करनेवाले अमूल्य तीन (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) रत्न विद्यमान हैं अतएव तुझको ही डरना चाहिये। कारण कि तेरे चारों ओर इन्द्रियरूप चोर घूम रहे हैं। इसलिये तू निरन्तर जागता रह । विशेषार्थलोकमें देखा जाता है कि जिनके पास कुछ भी नहीं है उन्हें चोर आदिका कुछ भी भय नहीं रहता । वे रात्रिमें निश्चिन्त होकर गाढ निद्रामें सोते हैं । किन्तु जिनके पास धन-संपत्ति आदि होती है वे सदा भयभीत रहते हैं। उन्हें चोर-डाक आदिसे उसकी रक्षा करनी पड़ती है। इसीलिये वे रात्रिमें सदा सावधान रहते हैं-निश्चिन्ततासे नहीं सोते हैं । यदि कोई धनवान् निश्चिन्तासे सोता है तो चोरों द्वारा उसका धन लूट लिया जाता है। इसी प्रकारसे जो प्राणी विषयोंके दास बने हुए हैं उनके पास तो बहुमूल्य संपत्ति (सम्यग्दर्शनादि) कुछ भी नहीं है । इसीलिये वे चाहे सावधान रहे और चाहे असावधान,दोनों ही अवस्थायें उनके लिये समान हैं। परन्तु जिसके पास सम्यग्दर्शनादिरूप अमूल्य संपत्ति है तथा जिसे चुरानेके लिये उसके चारों ओर इन्द्रियरूप चोर भी घूम रहे हैं उसे तो उसकी रक्षा करनेके लिये सदाही सावधान रहना चाहिये । कारण यह कि यदि उसने इस विषयमें थोडी-सी भी असावधानी की तो उसकी यह बडे परिश्रमसे प्राप्त की गई संपत्ति उक्त चोरोंके द्वारा अवश्य लूट ली जावेगीनष्ट कर दी जावेगी । इसीलिये यहां ऐसे ही साधुको लक्ष्य करके यह